अधिकतर भारतीयों के जीवन में आस्था एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. यह चकित बात करनेवाली बात नहीं है कि दुनिया के चार महान धर्म- हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख- यहीं पैदा हुए. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुसलिम आबादी हमारे यहां ही रहती है. और ईसाई, जो भारत में बहुत कम हैं, की संख्या भी ग्रीस और हंगरी की सम्मिलित जनसंख्या से ज्यादा है. लेकिन, आस्था की भी अपनी एक जगह होनी चाहिए.
बीते 14 जुलाई को जस्टिस आरएम लोढ़ा ने आइपीएल स्कैम के दोषियों के लिए अपना फैसला सुनाया. ठीक उसी सुबह आंध्र प्रदेश के राजमुंदरी में मची भगदड़ में 25 लोग मारे गये. गोदावरी महापुष्करम में भाग लेने के लिए लाखों भक्त आये थे. यह धार्मिक पर्व हर 144वें वर्ष मनाया जाता है. यह हादसा उसी घाट पर हुआ था, जो मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के लिए घेर कर रखा गया था. इसी घाट पर मुख्यमंत्री नायडू ने गोदावरी नदी में अकेले डुबकी लगायी और लगभग एक घंटे तक पूजा की. संभवत: उन्हें अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और भविष्य के मोक्ष के लिए दैवी आशीर्वाद मिला, जबकि घेरे के बाहर भीड़ बढ़ती रही. जब आम भक्तों को इस घाट के लिए अनुमति मिली, 29 लोगों की जानें चली गयीं, उनके शव क्षत-विक्षत हो गये. हताहतों में अधिकतर उम्रदराज महिलाएं थीं. अन्य 25 लोग बुरी तरह से जख्मी हुए. मुख्यमंत्री ने अपनी पूजा संपन्न की और निकल लिये. हमारे टेलीविजन चैनलों ने इस हादसे पर ध्यान तो दिया, मगर उनका सारा फोकस इस बात पर था कि आइपीएल स्कैम में गुरुयप्पन, कुंद्रा और अन्य लोगों को क्या सजा दी गयी.
हमारे देश में आदमी की जान सस्ती है. बिना किसी कारण के दर्जनों लोग मर जाते हैं और हम अपनी धुन में चलते रहते हैं. यह सही है कि महापुष्करम की योजनाओं पर काम हुआ था. एक रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 1600 करोड़ रुपये तैयारी पर खर्च किये गये थे. जबकि इसके लिए अनुमोदित राशि 336 करोड़ रुपये थी. लेकिन यह भी सच है कि पर्व के आरंभ के दिन तक भी सभी तैयारियां पूरी तरह से मुकम्मल नहीं हो पायी थीं. पर्व आरंभ के एक दिन पहले तक व्यवस्था के लिए राशि आवंटन का काम हुआ था. प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, पुलिस बल भी पर्याप्त नहीं था और भीड़-प्रबंधन की स्थिति भी बुरी थी. पुण्य स्नान के लिए आये भक्तों की उमड़ी भीड़ को देख कर प्रशासन भौचक्का क्यों हो गया था? पिछला महापुष्करम 144 वर्ष पहले वर्ष 1871 में आयोजित हुआ था. वस्तुस्थिति यह है कि 25 जुलाई तक चलनेवाले इस पर्व में लगभग पांच करोड़ भक्त हिस्सा लेंगे. इस दुर्लभ और अनूठे पर्व की जानकारी सबको थी. स्वयं राज्य सरकार ने इसका काफी प्रचार किया था.
भगदड़ या कुप्रबंधन के कारण मौत हमारे देश के लिए कोई नयी बात नहीं है. प्रयाग में महाकुंभ के दौरान, वर्ष 2006 और 2013 में मध्य प्रदेश के दतिया में और केरल के सबरीमाला में मची भगदड़ में कई जानें गयीं. महापुष्करम के योजनाकारों को बहुत पहले ही इन घटनाओं को संज्ञान में लेना चाहिए था. मगर, शायद ये तो पुरानी यादें हैं, प्रशासकों और उनके आका मुख्यमंत्री दोनों के लिए.
क्या वीवीआइपी लोगों का सर्वशक्तिमान से बात करने के लिए कोई विशेष हॉटलाइन लगी है? हिंदू धर्मशास्त्रों के अनुसार, उन्हें अपनी मुक्ति के बारे में कम और प्रजा के कल्याण के लिए अधिक करना ही सही धर्म होना चाहिए. नायडू एक घंटे तक अकेले पूजा-स्नान करते रहे. वह जहां नहा रहे थे, उस जगह के बाहर होनेवाले असहनीय दबाव से कैसे अनजान बने रह सके? क्या उन्होंने आवाजें नहीं सुनीं, क्योंकि वे मंत्रोच्चरण में व्यस्त थे, जबकि बैरिकेड के बाहर जमा भारी भीड़ नाराज होकर चीख-चिल्ला रही थी और लोगों के दबाव भर से बैरिकेड टूटनेवाला ही था.
इसमें कोई शक नहीं कि मुख्यमंत्री की पूजा के लिए विशेष व्यवस्था और इस हादसे के बाद सीधा संबंध था. जैसे कमजोर बांध के टूटते ही पानी का रेला टूट पड़ता है, ठीक वैसे ही घाट तक पहुंचने के लिए लोग दौड़ पड़े. इसके लिए कोई ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है कि जब तक घाट पर मुख्यमंत्री और उनके साथ के लोग थे, तब तक पुलिस और प्रशासनिक मशीनरी का सारा ध्यान उनकी जरूरतों को पूरा करने में लगा हुआ था. आम भक्तों की हिफाजत उनके एजेंडे पर नहीं थी.
बहुत वर्ष पहले मैं राष्ट्रपति डॉ शंकरदयाल शर्मा का प्रेस सेक्रेटरी था. डॉ शर्मा बहुत धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और इसमें कुछ भी कुछ गलत नहीं है. शपथग्रहण के एक दिन बाद साईं बाबा से आशीर्वाद लेने के लिए भारतीय वायु सेना के विमान से पुट्टापूत्तर्ि गये. अगली पूजा के लिए वहां से उनका विमान तिरुपति गया. दोनों ही अवसरों पर मैं उनके साथ था. तिरुपति में भक्तों की भारी भीड़ थी. मंदिर को घेर लिया गया था. एक अन्य घटना भी मुङो याद है- जब वह मुंबई में थे, तो हवाई अड्डे से ही सिद्धिविनायक मंदिर जाना तय किया. उस दिन वर्किग डे था. यात्र अपने मध्य में थी. सारा शहर थम गया था.
अधिकतर भारतीयों के जीवन में आस्था एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है. यह चकित बात करनेवाली बात नहीं है कि दुनिया के चार महान धर्म- हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख- यहीं पैदा हुए. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुसलिम आबादी हमारे यहां ही रहती है. और ईसाई, जो भारत में बहुत कम हैं, की संख्या भी ग्रीस और हंगरी की सम्मिलित जनसंख्या से ज्यादा है. लेकिन, आस्था की भी अपनी एक जगह होनी चाहिए. क्यों शक्तिशालियों द्वारा आम आस्थावानों का उपयोग चारे की तरह होना चाहिए? कौन-सा धर्म इस बात की अनुमति देता है कि सिर्फ वीवीआइपी लोगों को ही पूजा-अर्चना का विशेषाधिकार हासिल है, यहां तक कि दर्जनों जानों की कीमत पर भी. सदियों पहले चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा था- ‘अपने देश की समृद्धि के हित में एक राजा को आपदाओं की संभावनाओं को पहले ही देख लेने में सावधान होना चाहिए. इसके पहले कि वह उभरे, उसे दूर करने की कोशिश करनी चाहिए और जो हो चुका, उससे उबरना चाहिए.’ उसी लेख में उन्होंने आगे लिखा- ‘यह जनता है, जो राजतंत्र का निर्माण करती है. बांझ गाय की भांति बिना सशक्त जनता के राजतंत्र कोई फल नहीं देता है.’
समय आ गया है कि चंद्रबाबू नायडू और अन्य सभी वीवीआइपी लोग इसे समझ लें. राजमुंदरी में जो कुछ हुआ, उसकी स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच करायें. और जब मैं यह लिख रहा हूं, तो मेरी प्रार्थना में वो लाखों भक्त भी शामिल हैं, जो पुरी की रथयात्र में शामिल हुए थे.
और अंत में. क्रिकेट के महत्वपूर्ण होने के बावजूद, हमारा मीडिया उस दिन गोदावरी के तट पर मरनेवालों पर भी थोड़ा अधिक ध्यान दे सकता था.
पवन के वर्मा
सांसद एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com