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सुरक्षा के गले में राजनीतिक फंदा

।।प्रमोद जोशी।।(वरिष्ठ पत्रकार)जनरल वीके सिंह को लेकर विवाद आनेवाले समय में बड़ी शक्ल लेगा. जाने–अनजाने राजनीति ने रक्षा–व्यवस्था को अपने घेरे में ले लिया है, जिसके दुष्परिणाम भी होंगे. हमारी सेना अ–राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परंपरा है. फिर भी यह विवाद के घेरे में आ रही है, तो जिम्मेदार कौन […]

।।प्रमोद जोशी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
जनरल वीके सिंह को लेकर विवाद आनेवाले समय में बड़ी शक्ल लेगा. जानेअनजाने राजनीति ने रक्षाव्यवस्था को अपने घेरे में ले लिया है, जिसके दुष्परिणाम भी होंगे. हमारी सेना राजनीतिक है और इसे विवादों से बाहर रखने की परंपरा है. फिर भी यह विवाद के घेरे में रही है, तो जिम्मेदार कौन है? क्या हम सीबीआइ या किसी दूसरी जांच एजेंसी की मदद से ऐसे मामलों की जांच करा सकते हैं? हाल में इशरत जहां मामले को लेकर खुफिया एजेंसियों और जांच एजेंसियों की टकराहट सामने आयी है, जिसके दुष्परिणाम सामने हैं.

यह सब क्या व्यवस्था को साफ करने में मदद करेगा या हालात और बिगड़ेंगे? जनरल वीके सिंह का मामला 2004 के बाद दिल्ली में बनी यूपीए सरकार के साथ शुरू हुआ है. उसके पहले एनडीए के शासन में रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नाडिस और नौसेनाध्यक्ष विष्णु भागवत के बीच भी विवाद हुआ था, जिसकी परिणति विष्णु भागवत की बर्खास्तगी में हुई थी. वर्तमान विवाद 2005 में जनरल जेजे सिंह की थल सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति के बाद शुरू हुआ. इसका प्रस्थान बिंदु वही नियुक्ति है और इसके पीछे सेना के भीतर बैठी गुटबाजी है.

विवाद की ताजा लहर का केंद्र सेना की खुफिया इकाई के साथ जोड़ी गयी टेक्निकल सर्विस डिवीजन (टीएसडी) और उसका ऑफ एयर सर्विलांस उपकरण है, जिसे नवंबर 2010 में सिंगापुर से खरीदा गया और जो मार्च 2012 में नष्ट कर दिया गया. यह उपकरण मोबाइल टेलीफोनों से होनेवाली बातचीत को सुनने और उनका विेषण करने का काम करता था. सरकारी सूत्रों की ओर से अनौपचारिक रूप से आरोप लगाये गये कि इसका इस्तेमाल रक्षामंत्री के दफ्तर की जानकारी हासिल करने के लिए किया गया. यों, रक्षामंत्री आमतौर पर लैंडलाइन का इस्तेमाल करते हैं, जिसे यह उपकरण टैप नहीं करता. बहरहाल, ऐसा कहा गया कि कि सेना ने इस उपकरण का अनधिकृत रूप से इस्तेमाल किया.

बताया जाता है कि देश की तमाम खुफिया एजेंसियां और राज्य सरकारें भी ऐसे उपकरणों का इस्तेमाल कर रही हैं. किसी को इसके इस्तेमाल का कानूनी अधिकार नहीं है. जनरल वीके सिंह के हटने के बाद नये सैनिक प्रशासन ने इसके कामकाज की जांच सैन्य अभियानों के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया से करायी. जांच रपट मार्च के आसपास तत्कालीन रक्षा सचिव और अब सीएजी शशिकांत शर्मा को सौंपी गयी थी. इस रपट को लीक होने में छह महीने लगे वह भी 15 सितंबर को मोदी की रेवाड़ी रैली के फौरन बाद. खबर 20 सितंबर के अखबार में छपी है, पर यह रपट उस अखबार के पास 17 सितंबर को भी थी. अखबार ने लिखा है कि 17 सितंबर को वीके सिंह से संपर्क करने का प्रयास किया गया था. राजनीति का प्रश्न इसे किसने बनाया?

रपट के लीक होने के बाद जनरल वीके सिंह ने कहा, कश्मीर के सभी मंत्रियों को सेना पैसा देती है. इस बात को जितना महत्व उमर अब्दुल्ला ने दिया उतना ही हुर्रियत ने भी दिया. हालांकि जनरल सिंह ने कहा, ‘यह रिश्वत नहीं होती और न उस पैसे का इस्तेमाल निजी हित में या किसी राजनीतिक हित में हुआ है. ऑपरेशन सदभावना के लिए पैसा दिया गया और यह पैसा सरकारी अधिकारियों को कश्मीर में विकास के कामों को अंजाम देने के लिए दिया जाता था. सीक्रेट यूनिट मेरी निजी सेना नहीं थी. आज सीमा पर जो भी घटनाएं हो रही हैं, वे नहीं होतीं, अगर इसे खत्म नहीं किया गया होता.’ यह यूनिट रक्षामंत्री की सहमति और उनकी जानकारी में बनायी गयी थी.

यह बात समझ में नहीं आती कि इस डिवीजन के जरिये जम्मू-कश्मीर की सरकार गिराने की साजिश क्यों रची गयी? पिछले साल अप्रैल में उसी अखबार ने खबर छापी थी कि 16 जनवरी को सेना की दो इकाइयों ने देश की राजधानी की ओर कूच किया था, जिनमें से एक हरियाणा के हिसार में तैनात मेकेनाइड इंफेंट्री इकाई और दूसरी उत्तर प्रदेश के आगरा में तैनात 50 पैरा ब्रिगेड थी. बहरहाल उस वक्त जनरल सिंह ही नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रक्षामंत्री एके एंटनी ने भी उस खबर को सनसनीखेज और निंदनीय घोषित किया था. पर इस बार खबर छपने के अगले दिन ही सरकार ने उसकी पुष्टि कर दी.

जिन दिनों जनरल वीके सिंह का विवाद चल रहा था, उन्हीं दिनों यह खबर भी सुनायी पड़ी कि जनरल सिंह की याचिका दाखिल होने के पहले सेना ने रक्षा मंत्रालय के उच्चाधिकारियों के बीच की बातचीत को उन्हीं उपकरणों के मार्फत सुना था, जिन्हें लेकर अब विवाद खड़ा हुआ है. उसके कुछ समय पहले जनरल वीके सिंह ने आरोप लगाया था कि रक्षा गुप्तचर एजेंसी के एक रिटायर्ड अधिकारी ने उन्हें ट्रक का सौदा पास करने के बदले 14 करोड़ की रिश्वत देने की पेशकश की थी. यह मसला अदालत में है और सीबीआइ की ओर से इसे खत्म करने की प्रक्रिया चल रही है. सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा, जो लीक हो गया.

सेना के भीतर जाति, समुदाय, क्षेत्रीय और रेजिमेंट की पहचान के आधार पर गुट बन गये हैं. सुप्रीम कोर्ट में पूर्व नौसेना प्रमुख एलएन रामदास, पूर्व निर्वाचन आयुक्त एन गोपालास्वामी और तीन पूर्व जनरलों ने याचिका दायर की थी कि जनरल विक्रम सिंह की नियुक्ति को रोका जाये. उनके अनुसार सेना के पूर्व प्रमुख जनरल जेजे सिंह ने उत्तराधिकार की प्रक्रिया में इस तरह से हेर-फेर की है कि वीके सिंह के स्थान पर सेना प्रमुख का पद विक्रम सिंह को मिले. याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि जो आरोप लगाये गये हैं उससे जुड़े हुए कोई प्रमाण नहीं हैं. जनरल जेजे सिंह की नियुक्ति 1 फरवरी, 2005 को हुई थी. उस वक्त तीन नाम और भी चरचा में थे. माना जाता है कि जनरल दीपक कपूर जेजे सिंह के करीबी थे, जो उनके बाद सेनाध्यक्ष बने. वीके सिंह की उम्र का विवाद दीपक कपूर के समय में उठा. सीएजी शशिकांत शर्मा की नियुक्ति को भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी. वे तब रक्षा सचिव थे, जब दिल्ली में फौजी कूच की अफवाहें थीं. रक्षा सचिव के तौर कर शर्मा इन सभी सौदों में शामिल थे.

रक्षा के मामलों में अतिशय गोपनीयता ठीक नहीं. बेहतर है कि जिस मामले की खबर लीक हुई है, उसकी जांच हो और जल्द से जल्द रपट जनता के सामने रखी जाये. जनरल वीके सिंह को राजनीति में जाना चाहिए या नहीं, यह दूसरा सवाल है. यह पहली बार नहीं है कि कोई जनरल राजनीति में आया है, लेकिन पहली बार है जब किसी जनरल को लेकर इस तरह का विवाद इतना गहराया है.

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