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शिक्षा का ‘मार्क्सवाद’ कहां ले जायेगा?
प्रमोद जोशी वरिष्ठ पत्रकार सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. लोग बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं, भले ही उनका ताना-बाना घटिया है. एक-दो कमरों के इन स्कूलों के भवन सरकारी स्कूलों से खराब हैं, पर वहां शिक्षकों की उपस्थिति बेहतर है.सीबीएसइ की 12वीं कक्षा की परीक्षा में इस […]
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. लोग बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं, भले ही उनका ताना-बाना घटिया है. एक-दो कमरों के इन स्कूलों के भवन सरकारी स्कूलों से खराब हैं, पर वहां शिक्षकों की उपस्थिति बेहतर है.सीबीएसइ की 12वीं कक्षा की परीक्षा में इस साल टॉप करनेवाली दिल्ली की एम गायत्री ने कॉमर्स विषयों में 500 में से 496 अंक (अथवा 99.2 प्रतिशत) हासिल कर देश में टॉप किया.
यानी पांच विषयों में उनके कुल जमा चार अंक कटे. नोएडा की मैथिली मिश्र और तिरुअनंतपुरम के बी अजरुन संयुक्त रूप से दूसरे स्थान पर रहे. इन दोनों को 500 में से 495 अंक (99 प्रतिशत) प्राप्त हुए. अब सीबीएसइ की 10वीं के परीक्षा परिणाम आनेवाले हैं. आइसीएसइ तथा देश के अलग-अलग राज्यों की बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आ चुके हैं या आनेवाले हैं.
बच्चे उन ऊंचाइयों को छू रहे हैं, जिनसे ऊंचा पैमाना ही नहीं है. हर साल तमाम विषयों में बच्चे 100 में से 100 अंक ला रहे हैं. इनकी तसवीरें मीडिया में छायी हैं. बधाइयों-मिठाइयों का मौसम है. इन परिणामों के साथ इंजीनियरी, मेडिकल और दूसरे व्यावसायिक कोर्सो की प्रवेश परीक्षाओं के परिणाम आ रहे हैं.
बच्चे बधाई के हकदार हैं. पर ये परीक्षा परिणाम कुछ सवाल भी खड़े करते हैं. उच्चतर अंक-पद्धति से विश्वविद्यालयों में प्रवेश का कट ऑफ भी ऊंचा हो गया है. कम अंक पानेवालों के चेहरे पर मायूसी है.
क्या 60 और 40 फीसदी अंक पानेवाले बच्चों के लिए भी हमारे पास बधाई संदेश है? क्या वे बेकार हैं? क्या केवल यह अंक-पद्धति उनकी गुणवत्ता की पक्की कसौटी है? क्या यही छात्र की मेधा को विकसित करने का दावा कर सकती है? या मूल्यांकन पद्धति में कोई खोट है!
हम जिन बच्चों की तसवीरों को देख रहे हैं, उनमें अधिकतर मध्य-वर्ग से आते हैं. इनके बीच उन गरीब बच्चों की कहानियां भी हैं, जिनके संरक्षक रिक्शा चला कर, सब्जी बेच कर या मेहनत-मजदूरी करके अपने बच्चे को पढ़ाते हैं. ऐसे एकाध मामले ही हैं, आम नहीं.
समाज-व्यवस्था साहब के बेटे को साहब और चपरासी के बेटे को चपरासी बनाती है. यह मौलिक वैज्ञानिक, चिकित्सा विज्ञानी, विचारक और कलाकार बनाने का काम नहीं करती. अंकों पर केंद्रित इस नये ‘मार्क्सवाद’ ने खुद को अंकों की कमाई तक सीमित कर दिया है.
सौ फीसदी अंक आइआइटी में प्रवेश की गारंटी नहीं देते, पर इतना माना जा सकता है कि वह छात्र लिखत-पढ़त में इतना काबिल तो होता ही है कि उसे वहां प्रवेश मिल जाये. पर इस बात का पता कैसे लगेगा कि उसके भीतर मौलिक रचनात्मक प्रतिभा है. एक मित्र ने कहा, सौ फीसदी अंक हासित करना इतना आम-फहम होना शक पैदा करता है कि इस व्यवस्था में कहीं कोई दोष है.
हाल में ग्रामीण इलाकों के बच्चों के बीच विज्ञान-चेतना का प्रसार करनेवाले एक मित्र ने बताया कि हमें शहरी स्कूलों के बच्चों के अलावा ग्रामीण परिवेश के बच्चों के साथकाम करने का मौका भी मिलता है. विज्ञान को समझने में सफल वही होता है, जो खुद प्रयोग करके देख सके.
शहरी बच्चों के माता-पिता बच्चों को हाथ से काम करने से रोकते हैं. ग्रामीण परिवेश में मजदूर का बच्चा कठोर काम करना जानता है. उसे प्रयोग से निकले निष्कर्ष जल्दी समझ में आते हैं. वह हवा, पानी, खेत, जंगल, नदी और प्राणियों के साथ खेलते हुए बड़ा होता है.
उसे विज्ञान की अवधारणाएं समझाना आसान होता है, पर उसे बतानेवाले नहीं होते. ऐसी शिक्षा और उसके विषयों को लेकर विडंबनाओं के ढेर हैं.
परीक्षा में 100 फीसद अंक लानेवालों की बढ़ती तादाद से लगता है कि स्कूलों का स्तर ऊंचा हो गया है. यह भ्रम साल 2012 के पीसा टेस्ट में टूट गया. विकसित देशों की संस्था ओइसीडी हर साल प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीसा) के नाम से एक परीक्षण करती है.
दो घंटे की इस परीक्षा में दुनियाभर के देशों के तकरीबन पांच लाख बच्चे शामिल होते हैं. साल 2012 में भारत और चीन के शंघाई प्रांत के बच्चे इस परीक्षा में पहली बार शामिल हुए. चीनी बच्चे पढ़ाई, गणित और साइंस तीनों परीक्षणों में नंबर एक पर रहे और भारत के बच्चे 72वें स्थान पर रहे, जबकि कुल 73 देश ही उसमें शामिल हुए थे.
साल 2005 में शिक्षा-केंद्रित भारतीय एनजीओ ‘प्रथम’ ने पता लगाने की कोशिश की कि बच्चे वास्तव में सीख क्या रहे हैं. सात से चौदह साल की उम्र के तकरीबन 35 फीसदी बच्चे एक सरल पैराग्राफ (दर्जा एक के स्तर का) पढ़ नहीं पाये.
करीब 60 फीसदी बच्चे एक आसान कहानी (कक्षा दो के स्तर की) पढ़ने में असमर्थ रहे. सिर्फ 30 फीसदी बच्चे दूसरे दर्जे का गणित कर पाये (बेसिक भाग). छोटे दुकानदारों के लड़के-लड़कियां अपने माता-पिता की मदद के लिए इससे ज्यादा जटिल गणनाएं बगैर कागज-कलम के करते हैं. क्या स्कूलों ने उनके सीखे हुए को अनसीखा बना दिया?
नवीनतम ‘असर’ रिपोर्ट के अनुसार, शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीइ) लागू होने के बाद स्कूलों की संख्या और उनमें दाखिले में भारी बढ़ोतरी हुई है, पर पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता गिरी है.
सरकारी स्कूलों पर आम जनता का विश्वास घट रहा है. लोग बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं, भले ही उनका ताना-बाना घटिया है. पर जब हम सरकारी स्कूल में होनेवाले राजनीतिक-प्रशासनिक हस्तक्षेपों को देखते हैं, तब अंतर का पता लगता है. एक-दो कमरों के इन स्कूलों के भवन सरकारी स्कूलों से खराब हैं, पर वहां शिक्षकों की उपस्थिति बेहतर है.वे कम वेतन पाते हैं, पर उनका मुख्य काम पढ़ाना है.
तब क्या हम सरकारी शिक्षकों को जिम्मेवार मानें? अभिजीत बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में लिखा है कि देश के सबसे गरीब प्रदेशों में से एक उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्र के जौनपुर जिले में ‘प्रथम’ के कार्यकर्ताओं ने गांव-गांव जाकर बच्चों का परीक्षण किया और समुदायों को प्रेरित किया कि वे खुद देखें कि उनके बच्चे कितना जानते हैं.
अंतत: उनके बीच से ही अपने भाइयों-बहनों की मदद के लिए स्वयंसेवक निकले. वे कॉलेज-छात्र थे, जो शाम को क्लास लगाते थे. इस कार्यक्रम के पूरा होने पर सभी प्रतिभागी बच्चे, जो इसके पहले पढ़ नहीं पाते थे, कम से कम अक्षरों को पहचानने लगे.इसी तरह अध्यापकों की सबसे ज्यादा गैर-हाजिरी की दर वाले प्रदेश बिहार में ‘प्रथम’ ने सुधारात्मक समर कैंपों की श्रृंखला आयोजित की. इनमें सरकारी विद्यालयों के अध्यापकों को पढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया.
इस मूल्यांकन के परिणाम आश्चर्यजनक थे. बदनाम सरकारी अध्यापकों ने वास्तव में अच्छा पढ़ाया और इसके परिणाम जौनपुर की इवनिंग क्लासेज जैसे ही थे. यानी समस्याओं से घिरे होने के बावजूद हमारे पास समाधान भी हैं. क्या वजह है कि हम समाधानों से दूर हैं?
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