घर, परिवार, समाज, मैत्री, प्रेम, विश्वास, आस्था, उम्मीद, संबंध- सब टूट कर बिखर रहा है. एक अंधानुकरण में लिप्तता भयावह है. यह एक भूकंपकारी स्थिति है-स्वनिर्मित. हम सब मंझधार में फंसे और घिरे लोग हैं.
हमारी बाह्येंद्रियों की एक सीमा है. हमारी आंखें बहुत दूर तक नहीं देख पातीं और न श्रवणोंद्रिय उन ध्वनियों को ग्रहण कर पाती हैं, जो बहुत दूर और समीप से अतिमंद रूप में फैलती हैं. जो दृश्य हैं- दृश्यमान, उससे बहुत कुछ नहीं जाना जा सकता. क्या हम निरंतर अपने जीवन, परिवार और समाज में उस टूटन और बिखराव को देखने -समझने में सचमुच सक्षम हैं, जो रुक नहीं रहा? चीजें हिल रही हैं, कांप रही हैं. आलीशान और चमकीले भवन को देख कर उसकी अपनी नींव का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. एक व्यक्ति, परिवार, समाज और देश की पहचान जिन मूल्यों, दृष्टियों, अवधारणाओं से होती रही हैं, क्या वे सब आज भी पूर्ववत हैं या उनमें किसी प्रकार के बदलाव को लक्षित किया जा सकता है? समय निरंतर परिवर्तनशील है- एक सामान्य कथन है. समय को बदलनेवाली कारक शक्तियां ही प्रमुख हैं.
भारत कृषि प्रधान देश से उद्योग-प्रधान देश नहीं बन सका है. वह लटका और झूलता हुआ है. न तो वह अब कृषि प्रधान देश रहा, न उद्योग-प्रधान. न पारंपरिक, न आधुनिक-अत्याधुनिक. वह एक साथ कई समय में जी रहा है, जिसे सुविधा के लिए ‘भारतीय समय’ कहा जा सकता है. पचास के दशक में लगभग 80 प्रतिशत लोग गांवों में रहते थे और आरंभिक तीन पंचवर्षीय योजनाओं में उनके लिए मात्र पंद्रह प्रतिशत का प्रावधान था. राज्य-नियंत्रित अर्थतंत्र की नीतियां नगर-केंद्रित थीं. स्वतंत्र भारत में नगरीकरण की प्रक्रिया निरंतर जारी है-सिटी से स्मार्ट तक. बीसवीं सदी के आरंभ में गांधी और अरविंद अलग-अलग सभ्यता विमर्श कर रहे थे.
गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ और अरविंद ने ‘फाउंडेशंस ऑफ इंडियन कल्चर’ में सभ्यता और संस्कृति के प्रश्नों को अधिक महत्व दिया था. बाद में आर्थिक-सांस्कृतिक प्रश्न गौण हुए और राजनीतिक प्रश्न प्रमुख बने. गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ में आधुनिक सभ्यता को पतन का प्रमुख कारण माना, जिसमें बाहरी दुनिया की खोज और शारीरिक सुख ही प्रमुख है. आधुनिक सभ्यता को उन्होंने तकनीकी विकास से जोड़ कर देखा था. आज तकनीकी विकास शीर्ष पर है, जिसने लोगों के जीवन में सुविधाओं का अंबार खड़ा कर दिया है. आजादी के समय ही गांधी ने कांग्रेस में सत्ता-लोलुपता देखी थी- बाद में प्राय: सभी राजनीतिक दलों में उन्नीस-बीस के अंतर से यह फैल गयी.
तकनीकी विकास के साथ-साथ सत्ता-लोलुपता बढ़ती गयी है. ‘विकसित’ और ‘विकासशील’ देश में ‘विकास’ का अर्थ औद्योगिक-तकनीकी विकास है, जिसका सारा ढांचा यूरोपीय-अमेरिकी है. गांधी ने ‘भारत की आत्मा’ की बात कही थी और भारत के लिए यह खतरा माना था कि वह अपनी आत्मा खो बैठे. उनके लिए भारत की आत्मा का पुनराविष्कार प्रमुख था और नेहरू के लिए यूरोपीय ढंग से नवीनीकरण. न तो पुनराविष्कार हुआ और न नवीनीकरण. नेहरू का स्वप्न औद्योगिक भारत का स्वप्न था. टैगोर के लिए मूल्य (वैल्यू) प्रमुख था. उन्होंने चिंतन और क्रिया की जिस स्वाधीनता पर बल दिया, स्वतंत्र भारत में वह स्वाधीनता दुर्लभ हो गयी. भारत के नीति-निर्माताओं ने अपनी पश्चिमोन्मुखी, अमेरिकीन्मुख दृष्टि को ही सवरेपरि माना. आजादी के बाद कोई नयी संरचना-भारतीय संरचना निर्मित नहीं की गयी.
गांधी के निधन के साथ गांधी-युग समाप्त हुआ और नेहरू के निधन के बीस वर्ष बाद नेहरू-युग भी. दोनों के निधन के साथ राष्ट्रीय स्वाधीनता-आंदोलन की स्मृति और छाया भी दूर हो गयी. जिसे ‘असली भारत’ (रीयल इंडिया) कहा जाता है, वह कहां है? वही हिल रहा है. असली भारत को नकली भारत बनाने के सारे प्रयत्न जारी हैं. अरविंद ने ‘उद्धार का एकमात्र उपाय’ ‘अपना केंद्र’ और ‘निजी आधार को ढूंढ़ना’ माना था. आज देश का मन-मिजाज बदला जा रहा है. भारत का शिक्षित मध्यवर्ग और विशेषत: आज के युवा वर्ग का एक हिस्सा अपनी परंपराओं से मुक्त और उदासीन है. समाज में, जीवन में मान्यताओं का, सामाजिक मूल्यों का क्षरण जारी है, तीव्र है. आज योग्यता-मानक बदले हुए हैं. बीसवीं सदी के अंतिम दशक में चीजें आज जैसी साफ दिखायी नहीं देती थीं. उस समय नींव का हिलना कम दिखायी देता था. नयी प्रौद्योगिकी, नयी जीवनशैली और नये माहौल में जो पुराना टूट रहा है, गिर रहा है, उसे कम देखा जा रहा है. हमने ‘बाबूजी’ ‘पिताजी’‘ पापा’ से ‘डैड’ तक की यात्र कर ली है. गांव से स्मार्ट सिटी तक. हटिया-हाट से शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और मॉल तक. सब कुछ जल्दी बदला है. यूरोपीय देशों की तरह पुराने का त्याग कर यहां नवीकरण नहीं हुआ. एक साथ सामंतवाद और पूंजीवाद के सभी रूप (राजकीय पूंजी से बाजार-पूंजी तक) विद्यमान है. गांव-घर के साथ संबंध-रिश्ते बदल रहे हैं.
जीवन कहीं अधिक यांत्रिक हो गया है. औपचारिकता, प्रदर्शन, कृत्रिमता, दिखावा सब चरम पर है. वह जो एक धागा लोगों को आपस में जोड़े रखता था, टूट रहा है. भारत एक भंवर में फंसा हुआ है. लोकतंत्र के सभी पाये बुरी तरह से हिल रहे हैं. वे भीतर से कमजोर हो चुके हैं. होड़ा-होड़ी, छीना-झपटी, लूट-खसोट, मार-धाड़ कम नहीं है. हत्या और आत्महत्या की संख्या बढ़ रही है. अकेलापन बढ़ रहा है, पारिवारिकता, सामाजिकता, सामुदायिकता घट रही है. क ल का जो भी पारिवारिक, मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा अपनी जड़ों से विच्छिन्न होता जा रहा है. जो जीवनशैली हमने विकसित की है, वह निहायत अश्लील, भद्दी, नकली, कृत्रिम, दिखावटी और सतही है. सांस्कृतिक क्षरण सर्वाधिक है. घर टूट रहा है, संबंधों में दूरी आ चुकी है और बाजार हमें नियंत्रित-संचालित कर रहा है. यह प्रक्रिया क्षरण और अलगाव की जारी है-सब कुछ जो अब तक मूल्यवान था-घर, परिवार, समाज, मैत्री, प्रेम, विश्वास, आस्था, उम्मीद, संबंध- सब टूट कर बिखर रहा है. एक अंधानुकरण में लिप्तता भयावह है. यह एक भूकंपकारी स्थिति है-स्वनिर्मित. हम सब मंझधार में फंसे और घिरे लोग हैं. एकल परिवार में एक-दूसरे के बारे में सोचनेवाले कम हैं. एक-दूसरे के साथ जीने का, सहारा देने का परंपरागत मूल्य नष्ट हो रहा है.
नेहरू ने अपनी आत्मकथा में अपने को एक प्रकार से ‘निर्वासित’ माना था- ‘पश्चिम के लिए विजातीय और अजनबी’ और अपने देश में ‘निर्वासित.’ अब यह दुविधा और बढ़ गयी है. नकल करने की प्रवृत्ति कहीं अधिक बढ़ी है. क्या परीक्षाओं में की जा रही नकल को मध्यवर्गीय पश्चिमी, अमेरिकी नकल से जोड़ कर देखना गलत है? इकबाल ने अपने समय में लिखा था- ‘वतन की फिक्र कर नादां/ मुसीबत आनेवाली है/ तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में/ न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तां वालों/ तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में.’
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
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