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पाक में लोकतंत्र या बंदूकतंत्र!

।। पुष्परंजन ।।(ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)– चुनाव बाद तालिबान क्या पाक राजनीति का रिमोट अपने हाथ में रखेगा, यह एक बड़ा सवाल है. तहरीक-ए पाकिस्तान तालिबान ने चुनावी माहौल को डर और आतंक में तब्दील कर दिया है. – आखिर ऐसा क्या है कि चुनाव के समय मार्क्सवादी शायर हबीब जालिब का लिखा, […]

।। पुष्परंजन ।।
(ईयू-एशिया न्यूज के नयी दिल्ली संपादक)
– चुनाव बाद तालिबान क्या पाक राजनीति का रिमोट अपने हाथ में रखेगा, यह एक बड़ा सवाल है. तहरीक-ए पाकिस्तान तालिबान ने चुनावी माहौल को डर और आतंक में तब्दील कर दिया है. –

आखिर ऐसा क्या है कि चुनाव के समय मार्क्सवादी शायर हबीब जालिब का लिखा, दस्तूर (मैं नहीं मानता), पाकिस्तान के मतदाताओं की जुबान पर चढ़ने लगा है. ‘ऐसे दस्तूर को, सुबह बे-नूर को, मैं नहीं मानता’. जनरल अयूब खान की तानाशाही का विरोध करनेवाले शायर हबीब जालिब को गुजरे बीस साल हो गये, लेकिन उनकी शायरी आज की तारीख में विरोध और असहमति की जुबान बन गयी है. 1988 में बेनजीर भुट्टो जब सत्ता में आयीं, तो हबीब जालिब ने लिखा, ‘हाल अब तक वही हैं फकीरों के, दिन फिरते हैं फकत वजीरों के!

11 मई के बाद किस नेता, दल-जमात के दिन फिरते हैं, पाकिस्तान के चुनाव परिणाम तक इस विषय पर बहस चलती रहेगी. संसद के निचले सदन ‘नेशनल असेंबली’ की कुल 342 सीटों में से 272 सीटों के लिए प्रत्यक्ष निर्वाचन होना है. इनमें दस सीटें हिंदुओं और ईसाइयों के लिए रिजर्व हैं. 60 महिला प्रत्याशी भी आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. प्रांतों के हिसाब से पंजाब में सर्वाधिक 148 सीटें हैं.

सबसे संवेदनशील खैबर पख्तूनवाला में 35 सीटें, संघ प्रशासित कबीलाई क्षेत्र ‘फाटा’ में 14, बलुचिस्तान में 14, सिंध में 61 सीटें हैं, जहां पर राजनीतिक दलों ने पूरी ताकत झोंक रखी है. लोकप्रियता का ग्राफ दिखानेवाली सर्वे एजेंसियां सर्वाधिक नंबर पाकिस्तान मुसलिम लीग (एन) के नेता नवाज शरीफ को दे रही हैं.

सर्वेक्षण पर भरोसा कीजिए, तो सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के बुरे दिन आनेवाले हैं. टीवी चैनलों पर पैसों की बारिश हो रही है. चैनलों को देखिए, तो सिर्फ तीन पार्टियों के बीच चुनावी घमासान है. पाकिस्तान मुसलिम लीग (एन), पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और तीसरे नंबर पर इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ. चुनावी दौड़ के चौथे सवार के रूप में पाकिस्तान मुसलिम लीग (क्यू) का नाम था, लेकिन जनरल मुशर्रफ के रेस से बाहर हो जाने के बाद इस पार्टी ने भी मान लिया कि अब सिवा किसी को समर्थन देने के, और कुछ नहीं होना है. यह तो पक्की बात है कि पीएमएल (क्यू) नवाज शरीफ को समर्थन देने नहीं जा रही है.

मतदान के सप्ताह भर पहले तक जनता जिस तहरीक-ए-मिन्हाजुल कुरान के नेता मौलाना ताहिर-उल-कादरी को ढूंढ़ रही थी, वह तशरीफ ले आये हैं. कल ही वह लंदन से लौटे और आते ही कहा कि इस ‘करप्ट सिस्टम’ में कुछ नहीं होना है. कादरी के अनुसार, ‘गठबंधन के नाम पर जम कर ‘हॉर्स ट्रेडिंग’ होगी.’

जनता में बदलाव की उम्मीदें जगा कर सीन से गायब हो जानेवाले कादरी देश की राजनीति को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, उन्हें खुद नहीं मालूम. 23 दिसंबर, 2012 को लाहौर के मीनार-ए-पाकिस्तान से जनता का हुजूम लेकर चलनेवाले कादरी ने इसलामाबाद तक को हिला दिया था.

इसलामाबाद में जनसैलाब को जुटानेवाले डॉ कादरी की गिरफ्तारी से पाकिस्तानी अवाम की उम्मीदें बढ़ गयीं थीं. लोग उनमें अन्ना हजारे से लेकर ‘पहले एहतेसाब, फिर इंतखाब’ का नारा लगानेवाले पूर्व तानाशाह जनरल जियाउल हक तक का अक्स ढूंढ़ने लगे थे. उस समय कादरी के विरोधी कहने लगे थे, कि सेना उनका राजनीतिक प्रत्यारोपण कर रही है. लेकिन कादरी अचानक गायब हो गये.

वैसे, पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य से अचानक गायब होने का एक नया फैशन चल निकला है. अभी तीनेक दिन पहले पीपीपी के ‘स्टार कैंपेनर’ बिलावल भुट्टो दोबारा देश छोड़ कर चले गये. उनके बूते ही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी चुनाव प्रचार का खम ठोक रही थी.

अब पीपीपी के नेता अपनी झेंप मिटाते बयान दे रहे हैं कि बिलावल को तालिबान से खतरा है, इसलिए चुनाव बाद पाकिस्तान लौटेंगे. मार्च के अंत में बिलावल रूठ कर दुबई चले गये थे. कारण पारिवारिक उठापटक और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कमान संभालना रहा है. वहां पर बिलावल और हिना रब्बानी खार के करीब आने के किस्से सत्ता के गलियारों से गली-कूचों का रुख कर रहे थे. पूर्व विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार राजनीति से तौबा कर चुकी हैं और अपने पिता नूर रब्बानी खार को चुनाव लड़वा रही हैं. एक ‘ग्लैमरस’ विदेश मंत्री का ऐसे राजनीति छोड़ना ठीक नहीं रहा.

बिलावल इससे पहले रूठ कर जब दुबई चले गये थे, तब की घटना को हिना से जोड़ा जा रहा था. राष्ट्रपति जरदारी राजनीति की कमान किसे पकड़ाएं, अपने बेटे बिलावल भुट्टो या दो बेटियां आसिफा और बख्तावर को, यह उनकी समझ से अब बाहर है.

बड़ी बेटी बख्तावर ने सितंबर, 2008 में आत्महत्या की कोशिश की थी. तब उसने अपने पिता जरदारी पर आरोप लगाया था कि उसकी मां की हत्या में उन्हीं का हाथ रहा है. बख्तावर पर भरोसा कम होने के कारण जरदारी, छोटी बेटी आसिफा को पीपीपी का झंडा पकड़ा कर पूरे देश का दौरा करा रहे हैं. जरदारी की बहन फरयाल तारपुर राजनीतिक जोर आजमाइश कर रही हैं, सो अलग.

पूरा पाकिस्तान पीपीपी नेतृत्व के पारिवारिक कलह से वाकिफ है, इसलिए चुनाव बाद इस पार्टी के भविष्य पर बहस चल पड़ी है. चुनाव के बाद संभव है, राष्ट्रपति जरदारी दुबई का रुख कर लें, क्योंकि निजाम बदलते ही, जरदारी पर अदालत का कहर बरपा होगा, इस संकट को राष्ट्रपति महोदय भी समझ रहे हैं.

चुनाव बाद तालिबान क्या पाकिस्तानी राजनीति का रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखेगा, यह एक बड़ा सवाल है. अप्रैल के आरंभ से लेकर अब तक तहरीक-ए पाकिस्तान तालिबान ने चुनावी माहौल को डर और आतंक में तब्दील कर दिया है. अब तक 70 से ज्यादा लोग चुनावी हिंसा में मारे जा चुके हैं.

चुनाव समाप्त होते-होते क्या सुरक्षा एजेंसियां लाशें गिनती रहेंगी, या दोषियों को पकड़ेंगी, यह सवाल किसी मंच से नहीं उठाया जा रहा है. अवामी नेशनल पार्टी, पीपीपी और मुत्तहिदा कौमी मूवमेंट सबसे अधिक चुनावी हिंसा की चपेट में क्यों हैं? और आतंकवाद के विरुद्घ युद्घ छेड़नेवाला अमेरिका तथा यूरोपीय संघ क्यों मूकदर्शक होकर पाकिस्तान का चुनाव देख रहा है? ऐसे प्रश्नों पर विचार की आवश्यकता है.

यह सिर्फ कहने भर के लिए है कि पाकिस्तान ने लोकतंत्र के पांच साल पूरे कर लिये, और अगले लोकतंत्र की तैयारी में है. देखते-देखते पाकिस्तान का लोकतंत्र ‘बंदूकतंत्र’ में कैसे बदलता चला गया, इसे लेकर हैरानी नहीं होती. क्या जनरल कियानी यही साबित करना चाहते हैं कि इससे तो अच्छी सेना की सत्ता है? महीने भर में जनरल मुशर्रफ की जो दुर्दशा हुई, उससे पाक सेनाध्यक्षों को सबक लेना चाहिए, या फिर मार्क्सवादी शायर हबीब जालीब की मशहूर पंक्ति को याद करना चाहिए-‘तुमसे पहले वो जो एक शख्स यहां तख्त नशीं था, उसको भी अपने खुदा होने पर इतना ही यकीं था!’

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