।। प्रमोद भार्गव ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
सीबीआइ निदेशक रंजीत सिन्हा द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत हलफनामे से साफ है कि यह राजनीतिक प्रभाव में काम करनेवाली एक ऐसी जांच एजेंसी है, जिसकी निष्पक्षता संदिग्ध है. इस मामले में न्यायालय की मंशा थी कि सीबीआइ की कार्यप्रणाली स्वायत्त तो हो ही, साथ ही उसका आचरण भी निष्पक्ष व निर्विवाद रूप से पेश आये.
महाधिवक्ता हरेन रावल द्वारा दिये इस्तीफे और उसके साथ नत्थी पत्र से ही साफ हो गया था कि जांच की स्टेटस रिपोर्ट उन विभागों के प्रमुखों को दिखायी गयी, जिनके अधीन सीबीआइ है. अदालत की आज्ञा का यह उल्लंघन अटॉर्नी जनरल जीइ वाहनवती की मौजूदगी में हुआ.
सरकारी वकील अदालत में पैरवी भले ही सरकारी पक्ष की करता हो, लेकिन जब सरकार का एक पक्ष खुद आपराधिक जांच के दायरे में हो तो उनका संवैधानिक और नैतिक दायित्व बनता है कि वे पक्षपाती भूमिका के निर्वहन से दूर रहें. कहने की जरूरत नहीं कि इस हलफनामे के बाद वाहनवती को भी हरेन रावल का रास्ता अपनाना चाहिए.
सीबीआइ कितनी स्वायत्त और निष्पक्ष है, इस सरकारी दावे का पर्दाफाश खुद सीबीआइ निदेशक ने कर दिया है.
हालांकि सीबीआइ की यह जटिल समस्या है कि वह एक साथ तीन-तीन केंद्रीय मंत्रलयों के मातहत है. गृह, विधि और कार्मिक मंत्रलयों के साथ तालमेल बना कर चलना सीबीआइ की मजबूरी है. ऐसे में दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब जांच केंद्र सरकार के किसी मंत्री के खिलाफ नहीं, बल्कि सीधे प्रधानमंत्री से जुड़ी हो. ऐसे में क्या जांच को दोषपूर्ण बना देने की कवायद का एक छोर सीधे प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह तक नहीं जाता?
कोलखंड आवंटन मामले के कालखंड में कोयला मंत्री खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे. ऐसा लगता है कि स्टेटस रिपोर्ट में उन सब बिंदुओं में परिवर्तन किया गया, जिनकी आंच से प्रधानमंत्री झुलस सकते थे.
दरअसल सीबीआइ ने जांच में इस बिंदु को रेखांकित किया था कि खनन कंपनियों को कोलखंड आंवटन करने के लिए कौन-सा कानूनी तरीका अपनाया गया. लेकिन कोई तरीका अपनाया ही नहीं गया. तरीका अपनाया जाता तो कोलखंडों के आवंटन में मनमर्जी कैसे चलती? कानून मंत्री अश्विनी कुमार के दखल के चलते इस बिंदू को विलोपित कर दिया गया कि कोयला खदानों के आवंटन के दौरान जांच समिति ने कोई तुलनात्मक सारिणी नहीं बनायी.
यदि यह सारिणी बनायी जाती तो कंपनियों की कार्यक्षमता, उनके अनुभव और कार्य को गुणवत्तापूर्ण तरीके से अंजाम देने की स्थिति साफ होती. कानून मंत्री ने सीबीआइ के इस प्रश्न को भी रिपोर्ट से निकलवा दिया, जिसमें हवाला दिया गया था कि खदानों का आवंटन उस वक्त क्यों हुआ, जब सरकार आवंटन के नये तरीके अपनाने पर विचार कर रही थी? क्योंकि तरीके बदल जाते तो सरकार की मनमानी नहीं चलती.
दरअसल कानून मंत्री, कोयला मंत्रालय और पीएमओ के अधिकारियों को रिपोर्ट देखने की बेचैनी इसलिए थी, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि सीबीआइ निष्पक्ष जांच रिपोर्ट पेश करेगी, तो सरकार की मुश्किलें बढ़ जायेंगी. लेकिन यह दखल उलटबांसी बन कर पेश आया. जाहिर है, सरकार की मुसीबत बढ़ती जा रही है.
शीर्ष न्यायालय ने सरकारी दखल पर निगरानी की दृष्टि से केंद्रीय सतर्कता आयोग को भी सीबीआइ के पास जांच के सभी लंबित मामलों पर निगरानी में लगा दिया है. साथ ही अदालत सीबीआइ की स्वायत्तता बहाल कराने का उपक्रम करते हुए उसे किसी भी बाहरी हस्तक्षेप से मुक्त बनाये रखना चाहती है, ताकि जांचें प्रभावित न हों.
लोकपाल के आंदोलन के दौरान न केवल सीबीआइ को सरकार से मुक्त करने की बात उठती रही, बल्कि इसे सशक्त लोकपाल के मातहत कर देने की बात भी उठी. सीबीआइ के स्वतंत्र वजूद को लेकर कोई स्पष्ट कानून अब भी नहीं है. अंगरेजों ने 1941 में ‘स्पेशल पुलिस इस्टेब्लिशमेंट’ नामक संस्था बनायी थी.
अप्रैल, 1963 में एक सरकारी आदेश के मार्फत इसका नाम बदल कर ‘केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो’ यानी ‘सीबीआइ’ कर दिया गया. मसलन यह बदलाव संसद के जरिये नहीं हुआ. इसलिए संविधान में सीबीआइ कोई स्वतंत्र विधि-संस्था नहीं है. सीबीआइ विधेयक तीन दशक से लंबित है. इसके संसद से पारित होने पर सीबीआइ एक स्वतंत्र व स्वायत्त जांच संस्था बन सकती है.
फिलहाल, केंद्र सरकार और सीबीआइ के बीच यदि कोई स्वार्थमूलक गंठबंधन है, तो यह आपराधिक गंठबंधन है. इस पारस्परिक स्वार्थ की गांठ का खुलना बहुत जरूरी हो गया है.