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जोंक भी शरमा जाये इन स्कूलों के आगे

पंकज कुमार पाठक प्रभात खबर, रांची निजी स्कूलों से संबंधित एक ताजा अनुभव सुनिए. मैं स्टेशनरी का सामान खरीदने एक किताब दुकान पर गया. मरियल सी दिखनेवाली यह दुकान, हजारों रुपये की किताबें मिनटों में बेच रही थी. काफी भीड़भाड़ थी दुकान पर. किताब खरीद रहे एक दूसरे ग्राहक से मैंने कहा, ‘‘इतनी मंहगी किताब! […]

पंकज कुमार पाठक

प्रभात खबर, रांची

निजी स्कूलों से संबंधित एक ताजा अनुभव सुनिए. मैं स्टेशनरी का सामान खरीदने एक किताब दुकान पर गया. मरियल सी दिखनेवाली यह दुकान, हजारों रुपये की किताबें मिनटों में बेच रही थी. काफी भीड़भाड़ थी दुकान पर. किताब खरीद रहे एक दूसरे ग्राहक से मैंने कहा, ‘‘इतनी मंहगी किताब! शोधग्रंथ खरीद रहे हैं क्या?’’

जवाब में उसने तेरह किताबों की एक सूची मेरे हाथों में थमा दी. उसके चेहरे पर किताब खरीदने की मजबूरी साफ झलक रही थी. उसने बताया कि उसका बेटा एक निजी स्कूल में पहली कक्षा में पढ़ता है. उसकी किताबों की कीमत दो हजार रुपये है! यह शहर के किसी बड़े स्कूल की किताबों की सूची नहीं, बल्कि मोहल्ला स्तरीय एक ‘पब्लिक’ स्कूल में पहली कक्षा में पढ़नेवाले छात्रों के किताबों की सूची थी.

अब आप कल्पना कीजिए कि नामी और दामी स्कूलों की किताबों की कीमत क्या रहती होगी? अब हालात देखता हूं, तो लगता है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार का पूरा खानदान भी मिल कर कमायेगा, तो भी अपने बच्‍चों को निजी स्कूल में नहीं पढ़ा पायेगा. यकीन मानिए, जैसे फरवरी-मार्च का महीना छात्रों के लिए ‘परीक्षा’ देने का महीना होता है, ठीक वैसे ही अप्रैल का महीना, मध्यमवर्गीय छात्रों के अभिभावकों के लिए ‘भिक्षा’ मांगने का होता है. अपने बच्‍चों के सुनहरे भविष्य की उम्मीद में बेचारा लाचार अभिभावक इधर-उधर से उधार-कर्जा मांग कर मोटी रकम, निजी स्कूलों के भूखे पेट में विभिन्न प्रकार की फीस के रूप में भर देता है.

शिक्षा अब एक बाजार है, और मजबूर अभिभावक इस बाजार में खड़ा होकर खून के आंसू रो रहा है. आज देश में जितनी तेजी से आबादी बढ़ी है, उससे ज्यादा तेजी से प्राइवेट स्कूल खुले हैं. अंगरेजी नामवाले पब्लिक स्कूलों की तो जैसे बाढ़ आ गयी है. और सबसे अधिक तेजी से अगर कुछ बढ़ा है, तो वो हैं निजी स्कूलों की पैसे की भूख. इन स्कूलों की ‘गुरुदक्षिणा’ ही मध्यमवर्गीय परिवारों का पसीना छुड़ा देती है. रिएडमिशन-रिन्यूअल खर्च, बस का किराया और विकास फंड के नाम पर जो मुंहमांगी राशि मांगी जाती है, वह कमर तोड़ देनेवाली है.

किताबों का खर्च तो एक तरफ है. दरअसल, सरकारी स्कूलों की नाकामयाबी और सड़ चुकी व्यवस्था की बुनियाद पर महल की तरह खड़े ये निजी स्कूल अब पढ़ाने के लिए कम और वसूली करने के लिए अधिक जाने जा रहे हैं. इन्हें राज्य व्यवस्था के नियम-कानूनों का कोई भय नहीं है.

छोटे-छोटे मदों में भी बड़ी राशि वसूलना, इन स्कूलों की ‘हॉबी’ बन गयी है. अगर समय रहते इन सब चीजों का विरोध नहीं किया गया, तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि भविष्य में इन निजी स्कूलों में पढ़नेवाले आपके बच्‍चों अगर सांस भी लेंगे, तो उसकी भी फीस ये स्कूलवाले आप यानी अभिभावकों से ही वसूलेंगे.

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