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आदिवासी युवाओं के रोजगार का सवाल

एक माह पहले, 23 फरवरी को संसद के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि ‘समेकित विकास’ सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होगी, जिसमें गरीबों, अनुसूचित जाति-जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए रोजगार और छात्रवृत्ति के अधिक अवसर मुहैया कराने पर ध्यान दिया जायेगा. खास कर अनुसूचित जनजाति के युवाओं के लिए रोजगार की […]

एक माह पहले, 23 फरवरी को संसद के संयुक्त सत्र में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि ‘समेकित विकास’ सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होगी, जिसमें गरीबों, अनुसूचित जाति-जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए रोजगार और छात्रवृत्ति के अधिक अवसर मुहैया कराने पर ध्यान दिया जायेगा.
खास कर अनुसूचित जनजाति के युवाओं के लिए रोजगार की कितनी जरूरत है, इसे नेशनल सैंपल सव्रे ऑर्गेनाइजेशन की हालिया रिपोर्ट (भारत में सामाजिक समूहों में रोजगार व बेरोजगारी की स्थिति, 2011-12) से भी समझा जा सकता है.
रिपोर्ट के मुताबिक देश में 2004-05 से 2011-12 के बीच अनुसूचित जनजातियों में बेरोजगारी की दर सबसे तेजी से बढ़ी है. शहरी क्षेत्रों में इस समूह के पुरुषों में बेरोजगारी दर 2.9 से बढ़ कर 3.4, जबकि महिलाओं में 3.4 से बढ़ कर 4.8 फीसदी हो गयी है. ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति के पुरुषों में बेरोजगारी दर 1.1 से बढ़कर 1.3, जबकि महिलाओं में 0.4 से बढ़कर 1.1 फीसदी हो गयी है. तुलनात्मक रूप से देखें तो अनुसूचित जातियों में बेरोजगारी दर सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों के पुरुषों में बढ़ी है, ग्रामीण महिलाओं और शहरी पुरुषों एवं महिलाओं में बेरोजगारी की दर स्थिर है या कम हुई है.
चिंता बढ़ानेवाला तथ्य यह भी है कि जनजातियों के हाइस्कूल या अधिक शिक्षित युवाओं में बेरोजगारी दर सर्वाधिक (6.8 फीसदी) है. इतना ही नहीं, जनजातियों में जो कार्यरत हैं, उनमें 70.4 फीसदी कृषि व संबंधित कार्यो से जुड़े हैं, जबकि अनुसूचित जातियों, पिछड़े और अन्य वर्गो में यह आंकड़ा क्रमश: 49, 50.6 और 38.1 फीसदी है. जाहिर है, जनजातियों के अल्प शिक्षित युवा आजीविका के लिए कुछ भी करने के लिए मजबूर हैं, पर जो थोड़े पढ़े-लिखे हैं, उन्हें शिक्षा/ योग्यता के अनुरूप काम नहीं मिल रहा है. इस समूह के जो युवा आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें मौके मुहैया कराने में सरकारें विफल रही हैं.
राष्ट्रपति के आश्वासन के बावजूद केंद्रीय बजट में आदिवासियों के लिए अपेक्षित आवंटन नहीं हुआ है, जबकि उनके लिए नौकरियों में आरक्षण और स्वरोजगार प्रशिक्षण से आगे बढ़ कर कुछ नयी पहल की भी तुरंत जरूरत है. हाशिये पर खड़े समूहों के प्रति संवेदनशील हुए बिना समेकित विकास का दावा हकीकत में तब्दील नहीं हो सकेगा.

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