बाजारवाद के इस दौर में विकास का मतलब सरोकारहीन प्रगति है. इनसानी लालसाओं के सामने घटती जमीन के कारण, एक तरफ आसमान को छूनेवाली इमारतें बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर आदमी की निगाह भी धरती से दूर शून्य में कहीं भटक रही है. विकास की ऐसी लालसा मनुष्य को अपने समाज और अपने आसपास के पर्यावरण से विलगाव में डाल रही है. इसके खतरे जीवन में कई स्तरों पर दिखने लगे हैं.
जिन्हें ये खतरे नहीं दिखते वो विकास के नाम पर रोज इनसानी सरोकारों की बलि दे रहे हैं. चिली के मशहूर कवि पाब्लो नेरुदा ने अपनी कविता ‘कीपिंग क्वाइट’ में इस चिंताजनक स्थिति को बहुत गहराई से देखा है. वह कहते हैं : दोज हू प्रीपेयर ग्रीन वार्स/ वार्स विद गैस, वार्स विद फायर/विक्टरी विद नो सर्वाइवर. यानी कि पर्यावरण के खिलाफ संग्राम छेड़नेवाले/ गैस और आग के शस्त्रों से लैस हो लड़ते हैं/ ऐसी लड़ाई में जीत का जश्न मनानेवाला कोई नहीं बचता.
मंगलवार को मुख्यमंत्री आवास में झारखंड राज्य वन्य जीव बोर्ड की बैठक में मुख्यमंत्री की चिंता इससे इतर नहीं थी, जब वह कह रहे थे कि हमें विकास तो करना है, पर साथ ही पर्यावरण का संरक्षण भी करना है. पर्यावरण की यह चिंता किसी औपचारिक दिवस पर नहीं व्यक्त हुई थी. मुख्यमंत्री रघुवर दास पता नहीं पाब्लो नेरुदा की उपरोक्त पंक्तियों से परिचित है या नहीं, पर विकास के नाम पर पर्यावरण की बलि के खतरे से उनके भी कान उसी तरह खड़े हैं. एहतियातन उन्होंने जो कहा, उसके दूरगामी संदेश को तभी सुना जा सकता है जब विकास की नीतियों और योजनाओं के कार्यान्वयन में इस चिंता को जगह मिले. इधर लगातार बढ़ रहे हाथियों के उत्पात के संदेश को समझने की जरूरत है.
अभी सिर्फ हाथी जंगल छोड़ इनसान के आवासीय क्षेत्रों में प्रवेश कर रहे हैं तो यह हाल है, कल को अन्य वन्य जीवों के आवास जोखिम में पड़ेंगे तो वे भी हमारे आवासीय इलाकों में ऊधम मचा सकते हैं. वन्य जीवों की रक्षा वन संरक्षण के बिना संभव नहीं. इससे वन संपदा का संरक्षण तो होगा ही, वन्य जीवों का जीवन भी असहज नहीं होगा. प्रकारांतर से मानव जीवन की शांति को खतरा नहीं होगा. कहीं न कहीं पर्यावरण संतुलन को नुकसान से भी बचाया जा सकता है.