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यह दौरा सार्क यात्रा है न कि पाक यात्रा
मौजूदा वर्ष अब तक पिछले एक दशक का सर्वाधिक सुरक्षित व सबसे कम हिंसक रहा है. बीते 25 वर्षो में, यानी जबसे अलगाववाद शुरू हुआ है, कश्मीर में हिंसा कुल मिला कर सर्वाधिक निचले स्तर पर है. राज्य में सैन्यबलों की संख्या कम होने लगी है. पीटीआइ की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘मंगलवार को हो […]
मौजूदा वर्ष अब तक पिछले एक दशक का सर्वाधिक सुरक्षित व सबसे कम हिंसक रहा है. बीते 25 वर्षो में, यानी जबसे अलगाववाद शुरू हुआ है, कश्मीर में हिंसा कुल मिला कर सर्वाधिक निचले स्तर पर है. राज्य में सैन्यबलों की संख्या कम होने लगी है.
पीटीआइ की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘मंगलवार को हो रही विदेश सचिव एस जयशंकर की पाकिस्तान यात्रा से भारत किसी नाटकीय परिणामों की अपेक्षा नहीं रखता है’, क्योंकि ‘यह दौरा एक सार्क यात्रा है, न कि कोई पाक यात्रा.’ जब मैंने एक सेवानिवृत्त राजनयिक को यह रिपोर्ट दिखायी तो उसने कहा कि अपेक्षाओं को कमतर करने के लिए यह खबर चलायी गयी है. इसका मतलब यह है कि जिन लोगों को इस बैठक से बड़े नतीजों की उम्मीद है, उन्हें भारत निराश नहीं करना चाहता है. मामला ऐसा हो सकता है और यह भी कि पाकिस्तान से भारत के संबंधों में कोई निर्णायक मोड़ संभावित है. हालांकि, मेरी राय में यह खबर भारत की इस मौजूदा सोच का संकेत है कि पाकिस्तान से हमारे संबंध महत्वपूर्ण नहीं हैं और वर्तमान में ठंडे पड़े रिश्ते बरकरार रहेंगे.
मैं अपनी राय को स्पष्ट करना चाहूंगा. पाकिस्तान से भारत की बातचीत के दो प्रमुख मुद्दे हैं : आतंकवाद और कश्मीर. पहला भारत के लिए महत्वपूर्ण है, और दूसरा पाकिस्तान के लिए. अभी सच यह है कि भारत में आतंक किसी भी अन्य समय की तुलना में बहुत कम है. वर्ष 2014 में भारत में आतंकी हमलों में मरनेवालों की संख्या (कश्मीर तथा पूर्वोत्तर और माओवाद-प्रभावित अशांत क्षेत्रों के बाहर) शून्य रही है. वर्ष 2013 में यह संख्या 25 थी, जिसमें 18 लोग हैदराबाद के एक विस्फोट में मारे गये थे, जिसकी जिम्मेवारी इंडियन मुजाहिद्दीन ने ली थी. उससे पहले यानी 2012 में एक व्यक्ति की मौत हुई थी.
भारतीय मीडिया की समझ यह है कि भारत पाकिस्तान के अतिवादी समूहों के आतंक के साये में जी रहा है. लेकिन, सच यह है कि इसलामिक हिंसा के मामले में भारतीय यूरोपियों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं तथा भारत के शहर दुनिया में आतंक से सबसे कम प्रभावित हैं. इस स्थिति में यह तर्कपूर्ण प्रतीत होता है कि आतंक के मामले में पाकिस्तान से भारत को कोई खास लेना-देना नहीं है, क्योंकि कम-से-कम संख्या को देख कर तो कहा जा सकता है कि पाकिस्तान ने अपना काम कर दिया है. यह कहा जा सकता है कि मुंबई के हमलावरों के मुकदमे की सुनवाई तेज हो, और अनेक पाकिस्तानी भी इससे सहमत हैं. लेकिन, यह मुख्य समस्या नहीं है, क्योंकि भारत की नजर में ‘सीमा-पार से होनेवाला आतंकवाद’ एकदम कम है. अगर हम इस बात पर जोर देंगे कि पाकिस्तान आतंक की घटनाओं के बढ़ने का जिम्मेवार है, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि उसमें कमी का जिम्मेवार भी वही है. मोदी सरकार को इस मामले में पाकिस्तान से जो अपेक्षा थी, वह तो पूरी ही हो गयी है, और मेरी समझ से अब वह गंभीरता से पाकिस्तान से बातचीत की जरूरत महसूस नहीं कर रही है.
जहां तक पाकिस्तान की बात है, उसके लिए कश्मीर और कश्मीर-विवाद का समाधान मुख्य मुद्दा है. इस संबंध में भारत पर दो मोरचों से दबाव रहा है. इनमें पहला है, राज्य में पाकिस्तान-समर्थित आतंकवाद, और जिसके कारण बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक उसमें फंसे रहते हैं. दूसरा है, बड़ी संख्या में कश्मीरियों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने से इनकार और इसकी जगह ‘आजादी’ पर ध्यान देना. वर्ष 2001 में जम्मू-कश्मीर में कुल 4,507 लोग मारे गये थे, जो राज्य के इतिहास का सबसे हिंसक वर्ष था. वर्ष 2003 तक हर वर्ष दो हजार से अधिक लोगों की मौत का सिलसिला बना रहा. वर्ष 2004 और 2006 के बीच यह संख्या हजार से नीचे आ गयी. वर्ष 2011 से मरनेवालों की संख्या 200 के भीतर है, जिसमें आतंकियों समेत आम नागरिक और सुरक्षाकर्मी शामिल हैं. मौजूदा वर्ष अब तक पिछले एक दशक का सर्वाधिक सुरक्षित व सबसे कम हिंसक रहा है. बीते 25 वर्षो में, यानी जब से अलगाववाद शुरू हुआ है, कश्मीर में हिंसा कुल मिलाकर सर्वाधिक निचले स्तर पर है. राज्य में सैन्यबलों की संख्या कम होने लगी है.
राजनीतिक स्तर पर कश्मीर में मतदान करनेवालों की संख्या उसी स्तर तक पहुंच गयी है, जहां वह 1980 के दशक के आखिरी सालों में वर्तमान संकट के शुरू होने से पहले थी. अन्य राज्यों में मतदान करनेवाले भारतीयों की संख्या के समान ही कश्मीर में भी लोग विधानसभा के चुनाव के मतदान में हिस्सा ले रहे हैं. अलगाववादियों से सहानुभूति रखनेवाले समूहों, जैसे कि मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की भागीदारी से भी मुख्यधारा की राजनीति से अलगाववादी सोच को जोड़ने में मदद मिली है. पर, यह मानना पूरी तरह से गलत होगा कि इससे अलगाववादी भावनाएं समाप्त हो गयी हैं. फिर भी, ऊपर उल्लिखित कारकों के कारण कश्मीर मसले पर आगे बढ़ने का दबाव भारत पर शून्य के बराबर है.
इन दो मुद्दों- आतंकवाद और कश्मीर- के अलावा वैध और अवैध रास्तों से होनेवाला व्यापार भी बाधित है. इस मामले में पाकिस्तान की अनिच्छा के कारण किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती है. मध्य एशिया से पाकिस्तान के रास्ते ईंधन की आपूर्ति का मुद्दा अफगानिस्तान में संकट की वजह से रुका हुआ है, पाकिस्तान के कारण नहीं. ऐसे में और क्या विषय हैं, जिन पर बातचीत हो सकती है? वीजा जैसी छोटी चीजें हैं. इस संबंध में भाजपा को कराची के विभाजित परिवारों से कोई सहानुभूति नहीं है, क्योंकि मुसलमान उसके मतदाता नहीं हैं और उनकी कोई मजबूत लॉबी भी इस सरकार के साथ नहीं है. उसे ऐसे परिवारों की परेशानियों की कोई परवाह नहीं है. पाकिस्तान में पर्यटन बढ़ाने की उसकी चिंता भी नहीं है. बहरहाल, वीजा के नियम दोतरफा रवैया पर निर्भर होते हैं और मुंबई हमले की पृष्ठभूमि में यह सरकार तो क्या, कोई भी सरकार पाकिस्तानियों के लिए छूट देने में बहुत संकोच करती.
इन मसलों के अलावा और कुछ खास बातचीत के लिए नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान अपने आंतरिक तत्वों से संघर्ष में व्यस्त है, जबकि मोदी सरकार निरंतर अपने घरेलू एजेंडे और कभी नहीं खत्म होते लगनेवाले चुनावी चक्र में ध्यानमग्न है. इन कारणों से मुङो लगता है कि भारत का मानना है कि वह बेहतर स्थिति में है और संभवत: इस सप्ताह होनेवाली बैठक में पाकिस्तान के साथ उसका रवैया ठंडा बना रहेगा. जैसा कि पीटीआइ की रिपोर्ट संकेत करती है, इससे हमें बहुत कम उम्मीद रखनी चाहिए.
(अनुवाद : अरविंद कुमार यादव)
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
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