।। हरिवंश ।।
– दुनिया में जहां भी बदलाव हुए हैं, उसकी अगुवाई तरुणाई ने ही की है. पिछले दिनों चिली के 18 वर्षीय छात्र मॉएसेस पैरेडेस के नेतृत्व में शिक्षा में सुधार के लिए एक लाख छात्र सड़क पर उतरे थे. दुनिया की निगाहें उस पर लगी थीं. अपने देश में नजर डालिए, उम्र से युवा होने के बावजूद उनकी ऊजर्स्विता सकारात्मक कामों में नहीं नजर आती है.
नयी पीढ़ी के भरोसे देश सुरक्षित है. शिखर पर पहुंच रहा है. प्राय: यह नारा सुनता हूं. यह चर्चा भी आम है कि देश की 65 प्रतिशत आबादी 35 वर्ष के नीचे है. देश की आधी जनसंख्या, 25 वर्ष से कम उम्र की है. पर माफ करिएगा, भारत का यह युवापन (अपवाद छोड़ दें) श्रीहीन है. साहसविहीन है. तूफान से लड़ने और आसमान में सूराख बनाने का मंसूबा और हौसला नहीं रखता. उसमें इतिहास बनाने का माद्दा नहीं है. वह भोग का गुलाम है.
टेक्नोलॉजी (तकनीक) का दास है. उसके पास ब्रांडेड चीजें हैं. महंगे सनग्लासेस, कीमती ट्राउजर, पैरों में महंगे जूते–चप्पल आदि. पर वह अपनी जड़ों से कटा है. वह कांप्लीकेटेड रिलेशनशिप (जटिल रिश्तों) में जीता है. जब यह संबंध टूटता है, तो पूरी रात ब्रेकअप पार्टी में जश्न मनाता है. अपने फेसबुक वॉल के स्टेटस में कभी ‘सिंगल’ तो कभी ‘इन ए रिलेशनशिप’ लिखता है. वह मानवीय संबंधों की तिजारत में है. उसका पसंदीदा शहर है, बेंगलुरु. बेंगलुरु, महज एक शहर का नाम या संज्ञा नहीं है. एक प्रतीक है. हाल के एक सर्वे में दुनिया के 15 बड़े शहरों की शिनाख्त की गयी, जो टेक्नोलॉजीज के माध्यम से भावी दुनिया का स्वरूप लिख रहे हैं, जहां से नयी जीवनशैली, नये मूल्य, नयी जीवन पद्धति, नये संस्कार उभर या बन रहे हैं. इन शहरों की सूची में सिलिकॉन वैली के साथ–साथ नौवें नंबर पर बेंगलुरू है. दुनिया के सब शहर सिलिकॉन वैली बनना चाहते हैं. बेंगलुरू भी इस दौड़ में है. उधर भारत के सभी कस्बे–शहर भी बेंगलुरू बनना चाहते हैं. यानी दुनिया सिलिकॉन वैली, बेंगलुरू जैसे शहरों (जहां नयी टेक्नोलॉजी उभर रही है) के कंधे पर चढ़ कर इन शहरों जैसा ही बनना चाहती है.
याद रखिए, भारत की पहचान बनानेवाले तीन बड़े शहर अतीत में हुए. हजारों साल पहले. पाटलीपुत्र (पटना), काशी (बनारस) और प्रयाग (इलाहाबाद). ये तीनों भी मात्र शहर नहीं थे, बल्कि अपने समय में जीवन–दर्शन रहे. मूल्यों–संस्कारों को गढ़नेवाले. पर अब नयी दुनिया के इतिहास, उन महानगरों में लिखे जा रहे हैं, जो दुनिया की अगुवाई टेक्नोलॉजी से कर रहे हैं. जो अपने टेक्नोलॉजिकल इन्नोवेशन (नयी तकनीकी खोज) से मानव इतिहास का नया अध्याय लिख रहे हैं. इन्हीं शहरों में नये जीवन–मूल्य भी बन रहे हैं और इन्हें पूरी दुनिया अपना रही है.
इस नये दर्शन के तहत, आज के युवा एक तरह के दिखायी देंग़े उनका पहनावा जैसा होगा. उनकी टूटी–फूटी अंगरेजी एक तरह की मिलेगी. जीवन दर्शन एक–सा मिलेगा. मेरे मित्र प्रो श्रीश चौधरी (आइआइटी चेन्नई में प्रोफेसर) कहते हैं, चेन्नई जायें, पटना जायें, मुंबई जायें, आप देखेंगे एक तरह के भवन बन रहे हैं. विविधता खत्म हो रही है. लगभग 40 लाख कारें हर साल भारत में सड़कों पर उतर रही हैं. मुंबई से लेकर हर छोटा शहर जाम का शिकार हो रहा है. लगभग 10 करोड़ मोबाइल फोन हर साल मार्केट में उतर रहे हैं. करीब दो लाख छात्र एमबीए पढ़ कर बाजार में आ रहे हैं. 55 हजार के करीब बीटेक इंजीनियरिंग कर मार्केट में नौकरी के लिए प्रवेश कर रहे हैं. इनके सपने, लक्ष्य, प्रतिक्रिया, फेसबुक, सब एक तरह का. यह युवा पीढ़ी रात दो बजे के आसपास सोती है. सुबह आठ बजे जागती है.
रविवार को लगभग 12 बज़े सूर्योदय सरीखी चीजों को नहीं देखती. जो कमाते हैं, मस्ती पर खर्च करते हैं. अच्छे रेस्टोरेंट में खाना, पीना, मौज करना, यह जीवन का दर्शन है. पर, पिछले साठ वर्षो में इस देश ने क्या एक राजगोपालाचारी पैदा किया, क्या एक सीवी रमण पैदा हुए, क्या एक वैज्ञानिक चंद्रशेखर हुए, क्या एक सुभाषचंद्र बोस दिखायी देते हैं, क्या एक रवींद्रनाथ टैगोर नजर पड़ते हैं, एक सुब्रह्मण्यम भारती, एक रामानुजम दिखाई पड़ते हैं, एक सरोजनी नायडू दिखायी देती हैं? एक कोई खिलाड़ी ध्यानचंद दिखायी पड़ता है? कोई पूंजीपति जमशेदजी टाटा, और तो और घनश्याम बिड़ला जैसा भी दिखायी नहीं पड़ता (श्रीश चौधरी का एक व्याख्यान). इसके बारे में युवाओं में बेचैनी नहीं है. ऐसा कोई युवा राजनेता नजर नहीं आ रहा, जिसकी एक आवाज पर आज करोड़ों लोग खड़े हो जायें, जो पूरे देश में आदर–श्रद्धा का पात्र हो.
बहुत पहले एल्विन टाफ्लर ने फ्यूचर शाक में लिखा था, नयी टेक्नोलॉजी मानव संबंधों के नये सूत्र तय करेंगी. उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि विवाह जैसी संस्थाएं टूट जायेंगी. एकल परिवार खत्म हो जायेंगे. वर्चुअल वर्ल्ड में जीनेवाली यह पीढ़ी लिव–इन रिलेशनशिप (बगैर शादी साथ रहने) की दुनिया में प्रवेश करेगी. भारत में इसकी शुरुआत बेंगलुरू से हुई. कमोबेश पूरे देश में यह पसर चुका है. बेंगलुरू के टाइम्स आफ इंडिया (06.08.10, पेज-1) में हाल में पढ़ा, यह संबंध बड़ी तेजी से टूट रहा है, लिव–इन रिलेशनशिप का संसार.
विवाह संस्था हजारों वर्ष चली. अच्छी या बुरी. पर जो विकल्प निकला उन्मुक्त जीवन का, युवा विद्रोह का, वह कुछेक वर्षो में बिखर रहा है. 25-35 वर्ष की उम्र के युवा, जो इस संबंध के तहत बेंगलुरू में साथ रह रहे थे, उनमें टूट या अलगाव की दर पहले 30 फीसदी थी, अब अप्रैल-2012 से मार्च-2013 के बीच 42 फीसदी हो गयी है. इसका अंत कहां होगा, कोई नहीं जानता? बात–बात में आत्महत्या या पलायन, सामान्य घटनाएं हैं. उसी दिन, उसी अखबार की खबर है. इस खबर के ठीक बगल में छपी कि रेप के मामलों के बढ़ने से कर्नाटक सरकार परेशान है. एक तरफ सख्त कानून बना, दूसरी तरफ हर रोज बढ़ रहे बलात्कार, यह है नये जीवन दर्शन की देन.
बहरहाल, भारत की राजनीति में आये जिन युवाओं से बड़ी उम्मीद थी, वे कहां हैं? हम युवा हो रहे थे, तो हमने सड़कों पर नारा सुना, ‘जिस ओर जवानी चलती है, उस ओर जमाना चलता है’. युवा यानी लोक–अर्थ में यथास्थिति से विद्रोह करनेवाला. खराब हालात के खिलाफ बगावत करनेवाला. बियाबान में भी अपनी राह बनानेवाला. यानी राबर्ट फ्रास्ट की विश्व प्रसिद्ध कविता, द रोड लेस ट्रेवेल्ड का राही (जिस राह पर कोई नहीं चलता, उस राह पर चलनेवाला). हम युवा थे, तो पढ़ा सुभाष चंद्र बोस का लेख, तरुणाई के सपने. मृत शरीर में जान फूंकनेवाले विचार.
महज विचार नहीं. जो सोचा, वह किया और वही जिया. जेपी और लोहिया, जिन्हें ब्रिटिश जेल कैद नहीं कर सकी, आजीवन कुछ मूल्यों के साथ जीनेवाले, जिन्हें सत्तालोभ या पदलोभ पलभर के लिए भी नहीं डिगा सके. अध्यापकों ने कक्षाओं में बताया, बालक नचिकेता और बालक ध्रुव का संकल्प. पढ़ा शहीद भगत सिंह के बारे में, राजगुरु, खुदीराम बोस, शहनवाज खां और शहीद चंद्रखेशर आजाद को, जिनकी तसवीर टांग कर लोग फख्र महसूस करते थे. 1967 में पेरिस के सोबोर्न विश्वविद्यालय से निकला युवा विद्रोह (यथास्थिति के खिलाफ) पूरी दुनिया में पसर गया. हिप्पी आंदोलन क्या था? अपने समय की यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह. नये जीवन दर्शन की तलाश.
बुद्ध ने जीवन के दुख का कारण ढूंढ़ा, तब वह युवा ही थे. यह बौद्ध आज कहां हैं? पढ़ते हुए छात्र आंदोलन को देखा, इसके बाद राजनीति में देखा, हाल–हाल तक चंद्रशेखर जैसों को, जो ‘युवा तुर्क’ कहलाये. अपने बूते. पीछे न परिवार की ताकत, न यश और न पिता का खानदान. इंदिरा गांधी की पार्टी में रह कर उनकी इच्छा के खिलाफ कांग्रेस कार्यसमिति का चुनाव लड़ कर सबसे अधिक वोट पानेवाले. कांग्रेस में रह कर इमरजेंसी का विराध करनेवाले. इंदिरा जी की पार्टी में रहकर जेपी को चाय पर घर बुलानेवाले, जिसमें कांग्रेस के 60 सांसद शरीक हुए. अनगिनत अन्य प्रसंग हैं. दूसरों के भी. यह युवापन है. यह साहस है. महज शरीर से युवा रहना और विचारों से, स्वभावों से, कामकाज से, सपनों से भोग की दुनिया में डूबना–रमना, क्या यही युवापन (अपवादों को छोड़कर) है?
भारतीय राजनीति में जब आज के युवा प्रवेश कर रहे थे, तो बड़ी उम्मीदों और हसरत भरी निगाहों से लोग देख रहे थे. पर आज यथार्थ क्या है? हाल में इस विषय पर तीन विचारपरक लेख आये हैं. पहला, पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी का लिखा, पालिटिक्स, द न्यू जमींदारी यानी राजनीति, नयी जागीरदारी (टाइम्स आफ इंडिया – 26.07.13). लेख का आशय है, नयी पीढ़ी के सांसदों के उदय से संसद की प्रासंगिकता को नुकसान हुआ. इसी लेख में उल्लेख है कि भारत की संसद में कुल महिला सांसदों की 70 फीसदी संख्या, प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों से जुड़ी है.
30 वर्ष से कम उम्र के सभी सांसद अपने परिवार–पिता की विरासत ढो रहे हैं. आज 27 सांसद ऐसे हैं, जिनका ताल्लुक एक पीढ़ी से अधिक समय से कांग्रेस से है. इसमें से 19 कांग्रेस में हैं. 10 में से नौ युवा कांग्रेसी सांसद, वंशानुगत सीढ़ी से संसद पहुंचे. राष्ट्रीय लोक दल के सभी पांच सांसद, एनसीपी के नौ में से सात सांसद, अकाली दल के चार में से दो सांसद, नेशनल कांग्रेस के तीन में से दो सांसद, पारिवारिक सीढ़ियों के बल संसद पहुंचे हैं. दिनेश त्रिवेदी के अनुसार यह युवा समूह लेटेस्ट जूतों, गाड़ियों, डिजाइनर चीजों और ब्रांडेड घड़ियों में मस्त है. वह बताते हैं कि 1990 के दशक तक अधिकांश सांसद, संसद की मिनीबस से यात्रा करते थे.
संसद की पार्किंग में महंगी गाड़ियों के दर्शन दुर्लभ थे. पर आज बीएमडब्ल्यू, मर्सडीज, ऑडी, रॉल्स रायस जैसी महंगी और विदेशी गाड़ियों की भीड़ है. दिनेश त्रिवेदी के ही शब्दों में, पुराने–नये में फर्क क्या है? 40 के दशक में संविधान सभा का हर सदस्य देश की रहनुमाई कर सकता था. अभावों और संघर्षो के बीच आग, आंच और ताप से निकली संविधान सभा (कांस्टीच्यूएंट एसेंबली) के हर भारतीय से आज के सांसदों की तुलना कर लें? उनमें जो सबसे कमजोर और पीछे था, वह भी पीढ़ियों को प्रेरित करता था. आज जो सबसे महान हैं, चाहे वह किसी भी दल के हों, वे डिप्रेस (निराश) करते हैं.
क्या यही युवा, राजनीति का युवापन है? एक परतंत्र भारत के वे (संविधान सभा के सदस्य) युवा थे, जिन्होंने अभावों में, संघर्षो में अपने बलिदान, चरित्र और संकल्प से पस्त देश को खड़ा किया. आज 130 करोड़ के संपन्न मुल्क (50 वर्षो में भारत बहुत संपन्न हुआ) के युवा हैं, जिनकी राजनीति डिप्रेस करती है. इसी विषय पर दो और महत्वपूर्ण लेख आये हैं. जिन्हें भी युवा राजनीति से मोह है, उन्हें जरूर पढ़ना चाहिए. पहला है, यंग एमपीस बिट्रेयल ऑफ होप (आउटलुक – 05.08.13).
मशहूर पत्रकार, विचारक उत्तम सेन गुप्ता का लेख, ए ड्रीम डाइड यंग (एक युवा सपने की मौत). इसी तरह दूसरा लेख भी इसी विषय पर है, जिसे मशहूर पत्रकार बरखा दत्त ने (हिंदुस्तान टाइम्स– 03.08.13) लिखा है, ओल्ड बिफोर देयर टाइम यानी समय से पहले बूढ़े.
एक बार चंद्रशेखर जी ने यह प्रसंग सुनाया. वह पहली बार संसद पहुंचे, तो पाया कि सेंट्रल हाल कैंटीन में महत्वपूर्ण सांसद या मंत्री अपने लोगों के बीच गप कर रहे थे कि हमारे घर का रंग कैसा है, पर्दा कैसा है, फर्नीचर कैसा है. खाने की खूबियों, आलीशान जीवन, मोटर कारों पर बात हो रही थी. यह सब सुन कर चंद्रशेखर हतप्रभ थे. जिनके हाथ में भारत की नियति बनाने का काम सौंपा, उनके जीवन का मुख्य कंसर्न (चिंता के विषय) ये सब चीजें थीं! राजनीति गौण थी. तब इन्हें लगा कि इनकी असल महानता क्या है? आज की स्थिति तो बद से बदतर है.
नये सांसद, चाहे वे किसी भी दल के हों, वे विदेशों में, दक्षिण फ्रांस में या दुनिया की सर्वश्रेष्ठ जगहों पर वैकेशन (छुट्टियां) मनाते हैं. महंगी गाड़ियों पर चलते हैं. आलीशान बंगलों में रहते हैं. यह सब कहां से होता है, ऐसे नैतिक सवाल इन्हें जरा भी नहीं कुरेदते. अगर सचमुच आप देश के सवालों के लिए बेचैन हैं, तो संसद में बोलने के लिए समय मिले न मिले, आप पार्टी में, राजनीति में, सामाजिक फोरमों पर, जनता के बीच, अपने क्षेत्र में, अपने मुद्दों की लड़ाई लड़ेंगे. पर सुख और भोग की राजनीति अलग है. इस बीच सुनता हूं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट जैसे कुछेक युवा अन्य दलों में भी हैं, जो देश की राजनीति को गंभीरता से लेते हैं. पर देश के हालात जिस तरह खराब हुए हैं, उसमें एकाध अपवाद क्या कर सकते हैं?
फिर एक पुराने प्रसंग की चर्चा. चंद्रशेखर, यंग इंडिया पत्रिका निकालते थे. कांग्रेस के बंटवारे में, बैंकों और कोयला खदानों वगैरह के राष्ट्रीयकरण में उनकी निर्णायक भूमिका रही. वीवी गिरि को राष्ट्रपति बनवाने में भी. यह सब उन्होंने अपने बूते किया. अपनी पहल पर उन्होंने अपनी भूमिका का निर्वाह किया. पर ‘गरीबी हटाओ’ के बल पर चुनाव जीतने के बाद, जब इंदिरा गांधी जी का संसार, संजय चौकड़ी के आसपास सिमटने लगा, जब जेपी आंदोलन शुरू भी नहीं हुआ था, तब उन्होंने अपनी कांग्रेस पार्टी की सबसे ताकतवर नेता इंदिरा जी के खिलाफ लिखा.
उनकी पत्रिका का संपादकीय सभी अखबारों की सुर्खियां बनता था. इसके बाद जेपी आंदोलन शुरू हुआ. वह कांग्रेस कार्यसमिति में अकेले पड़ने लगे. चापलूसों और चारणों के बीच. तब पंडित द्वारकानाथ मिश्र (कांग्रेस के चाणक्य) जिंदा थे. पंडित मिश्र और चंद्रशेखर के लिए यह कांग्रेस कार्यसमिति की अंतिम बैठक रही. पंडित मिश्र ने उस बैठक में कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को (चंद्रशेखर को लेकर, तब तक कांग्रेस में गोलबंदी शुरू हो गयी थी) कहा–
‘चाह गयी, चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिए, वे साहन के साह।।’
और पंडित मिश्र ने चंद्रशेखर को सतर्क किया कि जिस राह पर चल रहे हो, उस पर ध्यान रखना–
‘खुल खेलो संसार में, बांधि सके न कोय,
घाट जकाती क्या करे, जो सिर बोझ न होय’
यानी चंद्रशेखर खुल कर खेलो. तुम्हें कोई बांध नहीं सकेगा (कांग्रेस नेताओं की घेराबंदी से आशय). अगर तुम्हारे सिर पर बोझ नहीं होगा, तो घाट पर उतरने पर घटवार शुल्क कहां से लेगा? चंद्रशेखर जी, पंडित मिश्र की इन पंक्तियों को याद रखते थे. कभी–कभार नितांत निजी क्षणों में सुनाते थे. उनके अंतिम दिनों में एक बार बंबई में (1998) में उनसे अकेले में पूछा, अपनी शर्तों पर आप अकेले कैसे चलते हैं या जीते हैं? उन्होंने एक शेर में उत्तर दिया –
‘मैदाने–इम्तहां से घबरा कर हट न जाना,
तकमील जिंदगी है, चोटों पे चोट खाना
अब अगले गुलिस्तां को शायद न हो शिकायत,
मैंने बना लिया है, कांटो में आशियाना’
आज कितने भारतीय युवकों को यह दर्शन पसंद है? या उनके जीवन का हिस्सा है? या उनके निजी जीवन या आचरण का प्रतिबिंब है? मई, 2009 में 15वीं लोकसभा का गठन हुआ, जिसमें चार करोड़ तीस लाख युवा मतदाताओं ने मत डाले. पहली बार 40 वर्ष से कम उम्र के 79 एमपी चुन कर आये. लगा कि यह समूह नये भारत की आवाज बनेगा. नये भारत की चुनौतियां थीं, भ्रष्टाचार, कीमत वृद्धि, कानून–व्यवस्था, शिक्षा, स्वास्थ्य वगैरह. इन सब सवालों को छोड़ दें, तो नौकरियों का सृजन, युवाओं के लिए पहला महत्वपूर्ण सवाल होना चाहिए. पर क्या भूमिका रही इन युवा सांसदों की? अखिलेश यादव (अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) ने कभी लोकसभा में मुंह ही नहीं खोला. उनकी पत्नी डिंपल यादव (2012 में जीती) ने भी अब तक एक शब्द नहीं बोला है.
इस तरह 36 युवा सांसद ऐसे हैं, जिन्होंने 15वीं लोकसभा में एक सवाल नहीं पूछा है. 2009 के बाद अनेक ऐसे युवा सांसद हैं (लगभग हर दल में), जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार और अपराध के गंभीर मामले दर्ज हुए थे. कई दलों के युवा सांसदों पर तो उपद्रव करने, हत्या का प्रयास करने, हत्या करने, हत्या के लिए अपहरण करने, महिलाओं की इज्जत लूटने, तनाव फैलानेवाला उत्तेजक भाषण देने, डकैती करने, सरकारी अफसरों को काम करने से रोकने, लोगों को डराने–धमकाने, अश्लील हरकत करने के आरोप हैं. कहां उम्मीद थी कि ये युवा सांसद, जाति–धर्म से ऊपर उठ कर एक नये भारत की आवाज बनेंगे, पर ये भी उसी ढर्रे पर हैं.
इसी दौर के आसपास युवा ओबामा महज अपने सपने और सकल्प की पूंजी के बल नया अमेरिका बनाने का आह्वान लेकर निकले और राष्ट्रपति बने. अद्भुत उपलब्धियां. अपने कर्म, उद्देश्य, संकल्प और आत्मविश्वास के बल. पर इधर के युवा नेता कहां है? आउटलुक में छह युवा सांसदों की तसवीर और सूची छपी है, जिन्होंने 2009 के चुनावों में अपनी संपत्ति की घोषणा की है. पहली बार. किसी के पास 11 करोड़ की संपत्ति है, तो किसी के पास 16 करोड़ की. कोई 25 करोड़ का मालिक है, तो कोई 27 करोड़ का आसामी है. किसी के पास पचास करोड़, तो किसी के पास साठ करोड़ की संपदा है. इन युवा नेताओं के उग्र वचन भी सुनने को मिलते हैं.
महाराष्ट्र कांग्रेस के एक बड़े नेता नारायण राणो के पुत्र हैं, नीतेश राणो (खुद को युवा नेता कहते हैं). वह ट्विटर पर गुजराती समाज के प्रति अपमानजनक शब्द कहते हैं. उन्हें मुंबई छोड़ने की बात करते हैं. शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे हैं. इनका पहला आंदोलन मुंबई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से रोहिन्टन मिस्त्री की किताब को बाहर निकालने के लिए था. राज ठाकरे की जुबान की गूंज पूरे देश में होती है.
कहते हैं, यह युग भौतिक समृद्धि का है. अर्थयुग है. कम से कम इस युवा राजनीतिक पीढ़ी का सपना तो अर्थ की दृष्टि से भारत को महान बनाने का होना चाहिए. अपनी ही पीढ़ी के दर्शन, सोच और सपने के अनुसार. दरअसल, कोई सपना मुकम्मल है ही नहीं, भोग के अलावा. और सपना तो राजनीति देती है. इस देश की राजनीति में आज जिस चरित्र के लोग हैं, वे घृणा ही उत्पन्न करते हैं. इसलिए असल दोष तो हमारी पीढ़ी का है. हमारे आदर्श रहे, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम वगैरह.
अपराध में न सही, राजनीति में ही. राजनीति में जो हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम के रूप हैं, वे आदर्श बन रहे हैं. राबिनहुड नायक. आज सरकारी पदों पर बैठ कर देश लूटनेवालों को क्या कहेंगे? साहस से युवा इतिहास लिखते रहे हैं. लगता है, यह पीढ़ी साहस, सपने और संकल्प रखती है, पर अपनी निजी नियति बनाने के लिए. देश और समाज के लिए यह पीढ़ी खुदगर्ज, सपनाविहीन और आत्मकेंद्रित ही है. किसी ने टिप्पणी की थी कि हमारे यहां साइबर कुलियों की संख्या ही बढ़ रही है. सच पूछिए तो अमेरिका में बसना, भारी संपदा अर्जित करना और जीवन का चरम भोग करना, यही हमारी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं के आदर्श हैं. कुछेक अपवाद मिल जायेंगे, पर उससे क्या फर्क पड़ता है?
1987 के आसपास दार्शनिक कृष्णनाथ से लंबी चर्चा हुई थी, दुनिया किधर जा रही है? दार्शनिक कृष्णमूर्ति के सहयोगी, बौद्ध धर्म के ज्ञाता, आजादी की लड़ाई के प्रणेता, बड़े समाजवादी नेताओं के अंतरंग रहे अर्थशास्त्री और दुनिया घूमनेवाले कृष्णनाथ ने अद्भुत उत्तर देते हुए कहा, तीन चीजें याद रखो. इस बनती नयी दुनिया के तीन प्रतीक. पहला, पूरी युवा पीढ़ी, अमेरिकी दर्शन से प्रभावित होगी. एक जैसे ड्रेस और आर्किटेक्चर के होड़ में दुनिया होगी. ‘जींस’ इसका प्रतीक होगा. यह मुक्त सेक्स, वर्जनाहीन, बंधनहीन जीवन–दर्शन होगा. गति (स्पीड) इसके जीवन का हिस्सा होगी. कोका कोला (महज एक पेय का नाम नहीं, बल्कि एक दर्शन का नमूना) आदर्श होगा.
आज दुनिया के किसी कोने में देख लीजिए, ये चीजें लागू मिलेंगी. अभी दिल्ली में मोटर–बाइकर्स के आतंक का प्रसंग आपने सुना, जिसमें एक पुलिस द्वारा मारा गया और दूसरा मरने की स्थिति में है. क्या इस पीढ़ी से नया भारत बनेगा? काश! हमारे सभी विचार और तथ्य गलत होते.