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सर्वोच्च न्यायालय में न्याय

एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा अब फिर उनका रूख कैसे बदल गया? इसका उत्तर जटिल है. प्रधान न्यायाधीश वकीलों के दबाव में आ गये, पर इस प्रक्रिया में उन्होंने साथी न्यायाधीशों समेत अपने पवित्र संस्था की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाया है. बिना सम्मान के न्याय बहुत कमजोर होता है. कानून के शब्द सीमित होते हैं, लेकिन […]

एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
अब फिर उनका रूख कैसे बदल गया?
इसका उत्तर जटिल है. प्रधान न्यायाधीश वकीलों के दबाव में आ गये, पर इस प्रक्रिया में उन्होंने साथी न्यायाधीशों समेत अपने पवित्र संस्था की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाया है.
बिना सम्मान के न्याय बहुत कमजोर होता है. कानून के शब्द सीमित होते हैं, लेकिन कानून की भावना असीमित होती है. एक न्यायाधीश का आकलन उसकी निष्कपटता और नैतिकता के आधार पर की जाती है. न्याय पक्षपाती तर्क की आवश्यकता को रेखांकित करता है, और यह भूमिका वह वकील के सुपुर्द कर देता है. वकील अपने पेशे से ही एकपक्षीय होता है, इसी कारण उसे अधिवक्ता कहा जाता है. न्यायाधीश निर्णय करता है, जिसमें जीवन और मृत्यु भी शामिल होते हैं.
अदालत चाहे निचली हो या ऊंची, यह एक महती जिम्मेवारी है. हमारी व्यवस्था में सम्मानजनक व्यवहारों में से एक है- किसी न्यायाधीश का स्वेच्छा से किसी मुकदमे से अपने को अलग कर लेना, जहां तनिक भी किसी संदेह या व्यक्तिगत भावना के आड़े आने की आशंका हो. हम भ्रष्टाचार पर चर्चा नहीं कर रहे हैं. असल में अगर कोई न्यायाधीश भ्रष्ट हुआ, तो वह मुकदमे में बने रहने की जुगत करेगा. लेकिन सम्मान तभी प्राप्त होता है, जब मुकदमे से अलग होने का फैसला स्वैच्छिक हो. अगर खंडपीठ से न्यायाधीश को हटा दिया जाता है, तो यह उस न्यायाधीश पर ही एक निर्णय बन जाता है.
इसी आधार पर तीस्ता सीतलवाड़ और उनके पति जावेद आनंद के जमानत की अर्जी पर सुनवाई कर रहे सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों- एसजे मुखोपाध्याय और एनवी रमना- की मूल खंडपीठ का बदला जाना आश्चर्यजनक है. इन दोनों ने स्वेच्छा से खुद को अलग नहीं किया. सीतलवाड़ के वकीलों के द्वारा कथित पक्षपात के सार्वजनिक आरोप लगाये जाने के बाद पीठ को बदल दिया गया. आरोप यह था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिसंबर में न्यायाधीश मुखोपाध्याय की बेटी तथा इस महीने न्यायाधीश रमना की बेटी की शादी में शामिल हुए थे.
क्या सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश सचमुच यह मानते हैं कि उनके साथी सिर्फ इस कारण बेईमान हो गये कि कुछ सामाजिक व्यवहारों का पालन किया गया? क्या वे मानते हैं कि अगर ये न्यायाधीश चरित्र से नहीं, तो अपने मस्तिष्क से कमजोर हैं?
और अगर ऐसा है तो वे अपने मौजूदा या भावी जिम्मेवारी को कैसे भरोसेमंद बना सकेंगे? प्रधान न्यायाधीश निश्चित रूप से यह जानते हैं कि प्रधानमंत्री को शादी के कार्यक्रम में आमंत्रित करना दिल्ली के व्यवस्था-तंत्र के ऊपरी स्तर में एक सामान्य व्यवहार है. ऐसे आमंत्रण प्रधानमंत्री मोदी अक्सर स्वीकार करते हैं. क्या सत्ता में रहते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और श्रीमती सोनिया गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश का कोई सामाजिक आमंत्रण स्वीकार नहीं किया था?
क्या इससे न्यायालय के किसी फैसले पर असर पड़ा, जबकि यूपीए सरकार एक-से-एक बड़े घोटालों में फंसी हुई थी? क्या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिल्ली के रात्रिभोजों में प्रधानमंत्री और राजनेताओं से नहीं मिलते? सीतलवाड़ के वकीलों द्वारा यह तर्क दिया गया कि इस संदर्भ में एक अंतर किया जाना चाहिए क्योंकि शादी की पार्टियां ‘निजी’ अवसर होती हैं. इन वकीलों को भारत से परिचय कराया जाना चाहिए.
माता-पिता के जीवन का एक औपचारिक अवसर उनके बेटा या बेटी की शादी का मौका होता है. जो भारत से परिचित नहीं हैं, वही यह मानेंगे कि शादी का आमंत्रण सिर्फ नजदीकी मित्रों को दिया जाता है. हमारे देश में शादी कोई आम ‘आयोजन’ नहीं होता है. इस मामले में आमंत्रण मिलना अनुग्रह माना जाता है और आमंत्रित नहीं होना सार्वजनिक अपमान. क्या मुलायम सिंह यादव ने अपने पोते की शादी में नरेंद्र मोदी को इसलिए आमंत्रित किया है कि वे उनके बहुत अच्छे मित्र हैं?
इन न्यायाधीशों को निमंत्रण भेजते हुए यह अनुमान भी न होगा कि यह मामला उनके सामने आयेगा. 13 फरवरी को सीतलवाड़ के मुकदमे के सूचीबद्ध होने से बहुत पहले निमंत्रण दिये गये थे. प्रधान न्यायाधीश भी तो उस आयोजन में थे और इस बात ने उन्हें न्यायाधीश मुखोपाध्याय को इस मामले की खंडपीठ में डालने से नहीं रोका, जो कि बिल्कुल उचित है. तब उन्हें अपने साथी न्यायाधीश पर भरोसे के बारे में तनिक भी संदेह नहीं रहा होगा. अब फिर उनका रूख कैसे बदल गया?
इसका उत्तर जटिल है. प्रधान न्यायाधीश वकीलों के दबाव में आ गये, पर इस प्रक्रिया में उन्होंने साथी न्यायाधीशों समेत अपने पवित्र संस्था की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाया है. सीजर की पत्नी के शक से ऊपर होने का मुहावरा घिसा-पिटा हो गया है. क्या सीजर भी संदेह से परे नहीं होना चाहिए? मुङो नये खंडपीठ पर पूरा भरोसा है. अगर न्यायाधीश-द्वय दीपक मिश्र और आदर्श गोयल प्रधानमंत्री से नहीं मिले हैं, तो जल्दी ही कहीं उनकी मुलाकात हो सकती है. दोनों ही स्थितियों में उनकी क्षमता और नैतिकता पर भरोसा है. कानून अपनी परवाह कर लेगा, सम्मान को चौकस रहने की जरूरत है.
(अनुवाद : अरविंद कुमार यादव)

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