।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
ऐसा बहुत कम होता है कि कोई बात जिसके खिलाफ कही जाये, वही पलट कर उसे सही साबित करने पर तुल जाये! लेकिन एक महिला आइएएस अधिकारी के निलंबन को लेकर चौतरफा घिरी यूपी की अखिलेश सरकार ने वरिष्ठ दलित लेखक कंवल भारती द्वारा फेसबुक पर लिखी टिप्पणी से नाराज होकर कुछ ऐसा ही कर दिखाया है. भारती ने लिखा था कि सपा सरकार में रामपुर में कोई भी काम कानून के बजाय शहरी विकासमंत्री आजम खां की इच्छानुसार होता है.
दुर्गाशक्ति को रमजान में गौतमबुद्ध नगर की निमार्णाधीन मसजिद की चारदीवारी गिरवाने के आरोप में निलंबित कर दिया गया, लेकिन रामपुर में कथित रूप से कब्रिस्तान की भूमि पर बने मदरसे को ढहाने व इसका विरोध करने पर उसके प्रबंधक को जेल भेज देने के मामले में किसी अधिकारी पर कार्रवाई नहीं की गयी, क्योंकि आजम की ऐसी ही इच्छा थी.
आजम के मीडिया प्रभारी फसाहत अली इसके फौरन बाद कंवल के खिलाफ धार्मिक उन्माद व वैमनस्य फैलाने की शिकायत दर्ज कराने थाने जा पहुंचे. फिर तो पुलिस कंवल को अपराधी की तरह दबोच कर थाने उठा लायी. उनको कपड़े बदलने तक का मौका नहीं दिया गया, उनका लैपटॉप जब्त कर लिया गया और दस घंटे तक हवालात में बंद रखा गया. वह तो भला हो सीजेएम वीके पांडे का जिन्होंने उनको अदालत में पेश किये जाते ही जमानत दे दी और कंवल को सलाखों के पीछे पहुंचाने का मंसूबा धरा रह गया. अच्छा है कि संविधान में सत्ताधीशों को अपनी नहीं, कानून की मर्जी के अनुसार शासन करने का अधिकार दिया गया है. कानून तोड़नेवालों को सजा देने के लिए अलग से प्रणाली बनायी गयी है. वरना जाने क्या होता?
संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के इस्तेमाल की सजा कंवल को देने को लेकर स्वाभाविक ही साहित्यकारों में सबसे ज्यादा गुस्सा है. वे इसे चरम सरकारी असहिष्णुता के रूप में देख रहे हैं. लेकिन गौरतलब है कि फेसबुक पर अखिलेश सरकार की आलोचना करनेवाले कंवल अकेले लेखक नहीं हैं. अन्य कई ने कहीं ज्यादा तल्ख टिप्पणियां कर रखी हैं.
एक पत्रकार ने लिखा है कि यह सरकार कहती है कि केंद्र अपने सारे आइएएस वापस बुला ले तो वह अपने अफसरों से ही प्रदेश चला लेगी. चला भी ले तो कौन–सा तीर मार लेगी? पिछली सरकार ने भी तो एक गैर–आइएएस को कैबिनेट सचिव बना डाला था.
कंवल का ‘कुसूर’ इसलिए सबसे बड़ा है क्योंकि उन्होंने सीधे आजम को निशाने पर लिया, सो भी उनके रामपुर में रहकर! कंवल दलित हैं और आजम अल्पसंख्यक. सत्तारूढ़ सपा का ‘दलितद्रोह’ और ‘अल्पसंख्यक प्रेम’ किसी से छिपा नहीं है. जो स्थितियां हैं, किसी को आश्चर्य नहीं होगा, अगर कल वह इस कार्रवाई को अपने वोटर को ‘संदेश’ देने के लिए इस्तेमाल करने पर उतर आयें. अखिलेश इसका औचित्य सिद्ध करने चलें तो कह सकते हैं कि ऐसे ‘सबक’ तो पिछली सरकारें भी सिखाती रही हैं.
दुर्गा के निलंबन को वे ऐसे ही तर्को से सही ठहराते हैं. उनके पास नजीर भी है कि शंकर शैलेंद्र की चर्चित कविता– ‘भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की’ को प्रतिबंधित करते हुए कहा गया था कि यह निर्वाचित सरकार के प्रति घृणा का प्रसार करती है. फिर वे क्यों नहीं कह सकते कि कंवल ने उनके एक निर्वाचित मंत्री का अपमान किया है? अखिलेश पुरानी लीक पर ही चलना चाहते हों तो उनको एक और सवाल का जवाब देना चाहिए– क्या वे सचमुच समझ नहीं पा रहे कि जैसे उन सरकारों की बेदखली हुई, वैसा ही हश्र कभी उनकी सरकार का भी हो सकता है?
फेसबुक जिस सोशल मीडिया का हिस्सा है, उसकी बढ़ती शक्ति से देश की प्राय: सभी सरकारें परेशान हैं. अभी महाराष्ट्र में दो लड़कियों को फेसबुक पर बाल ठाकरे विरोधी टिप्पणी को लेकर सरकारी कोप झेलना पड़ा था. कोर्ट ने उन्हें राहत देते हुए सरकारी अमले को फटकार भी लगायी थी. लेकिन नागरिकों की संवैधानिक आजादियां, सुरक्षाएं कब तक अदालतों के भरोसे रहेंगी? कंवल ने विद्वेष फैलाने के आरोप को नकारते हुए कहा है कि विचार व्यक्त करना अपराध है तो यह अपराध वे आगे भी करते रहेंगे, क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट उनको दंशित करती है.
लेकिन क्या किया जाये, अब जो भी सरकारें आ रही हैं, अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति सबका रवैया खासा गर्हित है. वे लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करके चुनी जरूर जाती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक नहीं होतीं. साफ है कि अब अभिव्यक्तियों के समक्ष उठाने के लिए कई नये खतरे हैं.