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नाखून कटा कर शहीद मत बनिए

इतवार के दिन मैं मुहल्ले के सैलून में अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. जैसा कि अक्सर होता है, लोगों ने अखबार को पन्नों में बांट लिया था. मेरे हिस्से भी बीच के दो पन्ने आये थे. सैलून में एफएम रेडियो भी चल रहा था. हर गाने के बाद अनाउंसर वस्त्रदान की अपील कर […]

इतवार के दिन मैं मुहल्ले के सैलून में अपनी बारी का इंतजार कर रहा था. जैसा कि अक्सर होता है, लोगों ने अखबार को पन्नों में बांट लिया था. मेरे हिस्से भी बीच के दो पन्ने आये थे. सैलून में एफएम रेडियो भी चल रहा था. हर गाने के बाद अनाउंसर वस्त्रदान की अपील कर रही थी.

तभी बेबाक सिंह वहां पहुंच गये. अपने अंदाज में पीठ पर थपकी दी और पूछा-‘‘क्या हालचाल है गुरु?’’ ‘‘ठीक है सिंह साहेब, अपना सुनाइए’’, मैंने उत्तर दिया. ‘‘अपना क्या है, न सावन सूखे न भादो हरे. सदा दिवाली संत घर वाली स्थिति है’’, बेबाक सिंह ने दार्शनिक अंदाज में जवाब दिया. इससे पहले कि वे अपना और दर्शन बघारना शुरू करते, मास्टर रमेश अपनी बाइक पर बड़ा सा झोला लादे आ धमके. उन्होंने दुआ-सलाम की, तो बेबाक सिंह ने पूछा- ‘‘इस झोले में क्या है महापुरुष?’’ ‘‘कुछ कपड़े हैं, जिन्हें दान देने जा रहा हूं’’, मास्टर रमेश ने कहा. ‘‘नये हैं?’’, बेबाक सिंह ने फिर सवाल दागा. ‘‘अरे नहीं भाई साहेब, पुराने हैं. हर साल बेटा बड़ा होता जाता है और उसके कपड़े छोटे होते जाते हैं.

घर में इतनी जगह नहीं कि इन्हें संजो कर रखा जाये और फेंकते बनता नहीं. सोचा किसी गरीब का भला हो जाएगा. उसकी ठंड कट जाएगी और अपने हिस्से थोड़ा-बहुत पुण्य आ जायेगा’’, मास्टर रमेश ने कहा. ‘‘रमेश बाबू, आप टीचर नहीं, फटीचर हैं. नाखून कटा कर शहीद बनने चले हैं. नहीं चाहिए गरीबों को आपकी यह दया. रहने दीजिए उन्हें भूखा-नंगा. क्या होगा, ठंड से मर जाएंगे, यही न! नया कपड़ा तो मिलने से रहा, कम से कम नया जन्म तो मिल जायेगा’’, मास्टर रमेश की बात पर बेबाक सिंह ऐसे भड़के जैसे सांड़ लाल कपड़ा दिखाने पर भड़कता है. एक सांस में इतना बोलने के बाद थोड़ा दम लिया और फिर शुरू हो गये-‘‘अरे, गरीबों को क्या नया पहनने, अच्छा खाने और चैन की नींद सोने का हक ही नहीं है.

हम हर बार सरकारी तंत्र को नाकाबिल करार दे देते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा नाकाबिल हमारी सोच है. हम गरीब लोगों को छूटन-उतरन का हकदार मान बैठते हैं. कपड़ा छोटा या पुराना हो जाता है तो उसे हम दान की वस्तु समझ लेते हैं और जब घर में खाना बच जाता है या बासी हो जाता है तो नौकर-नौकरानी का हिस्सा मान लेते हैं.’’ ‘‘कमाल करते हैं सिंह साहेब! अपने से जितना हो पाता है, गरीबों की मदद करते हैं. कम से कम उन लोगों से तो अच्छे हैं, जो नया या पुराना किसी प्रकार की मदद नहीं करते’’, मास्टर रमेश ने तमतमाते हुए कहा. ‘‘रमेश बाबू, गरीबों को कुछ देना चाहते हैं तो दया नहीं, उनका हक दीजिए. अपनी सोच नयी कर लीजिए. यही उनके प्रति आपका बड़ा योगदान होगा..’’, बेबाक सिंह अपनी बात पूरी कर पाते कि इससे पहले मास्टर रमेश खिसक लिये. मेरा नंबर आ गया. बेबाक सिंह तब चुप तो हो गये, लेकिन उन्हें शांत होने में काफी वक्त लगा.

कुणाल देव

प्रभात खबर, जमशेदपुर

kunaldeo@rediffmail.com

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