कई देशों ने अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई में गांधी के व्यक्तित्व और विचारों को मार्गदर्शक बनाया. महान नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका और आंग सान सू की के नेतृत्व में बर्मा का राष्ट्रीय संघर्ष इस संदर्भ में बड़े उदाहरण हैं. हमारे देश में पिछली सरकारों की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी न केवल अपने भाषणों में अक्सर गांधी को याद करते हैं, बल्कि स्वच्छता के व्यापक अभियान को राष्ट्रपिता की स्मृति में समर्पित भी किया है.
लेकिन, आज बापू के निर्वाण दिवस पर क्या हमारा देश भरोसे के साथ यह दावा कर सकता है कि हमारे राष्ट्रीय जीवन में गांधी के मूल्यों की गरिमामयी उपस्थिति है और हम उनके संदेशों के मूल तत्वों का अनुसरण कर रहे हैं? शायद नहीं. देश में कुछ संगठन गांधी की हत्या करनेवाले नाथूराम गोडसे की मूर्तियां स्थापित करने और उसे महापुरुषों का दर्जा दिलवाने के प्रयास में जुटे हैं. दूसरी ओर गांधी की चिंताओं का केंद्र ‘वह सबसे गरीब आदमी’ आज भी लाचारी और बेबसी की जिंदगी बसर कर रहा है. धर्म, जाति और क्षेत्र के संकीर्ण दायरे में बंटे समाज में हिंसा एक आम चलन है. खबरें गवाह हैं कि अपराध और भ्रष्टाचार इन वर्षो में लगातार बढ़े हैं.
अब एक राजनीतिक दल ने संविधान से ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ को हटाने की मांग भी कर डाली है और केंद्र सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री इस पर बहस की वकालत कर रहे हैं. ऐसे में आज का दिन देश के लिए यह विचार करने का अवसर है कि क्या गांधी का नाम लेना महज एक औपचारिकता भर रह जानी चाहिए, या समाज और सरकार को उनके जीवन और संदेशों का फिर से अध्ययन कर अपने वर्तमान और भविष्य को शांति और समृद्धि की ओर ले जाने का उपक्रम करना चाहिए.