वर्तमान में कब किसके साथ क्या घटना हो जाये, यह कोई नहीं जानता. सुरक्षा की गारंटी लेनेवाले ही असुरक्षित व भयभीत हैं. सरकार की हालत भी पानी में रह कर मगर से बैर के जुमले के समान है. वह बोल तो रही है, पर शब्द उसके नहीं हैं. स्कूल में पढ़नेवाला बच्चा मिड–डे मील खाने से मर जाता है, तो सुरक्षाकर्मी नक्सली व आतंकी हमलों से.
महिलाएं घर में रह कर भी महफूज नहीं, क्योंकि कब उनकी आबरू तार–तार हो जाये, कहना मुश्किल है. यहां तक कि तीन वर्ष, पांच वर्ष की बच्चियों के साथ भी दुष्कर्म हो रहा है. सरकार व प्रशासन का कहना है कि समाज में रहनेवाले लोगों का सहयोग हमें नहीं मिलता और दूसरी तरफ जनता बोलती है कि प्रशासन की मिलीभगत से ही कोई भी घटना होती है.
प्रशासन से जुड़े लोग इतने भ्रष्ट हैं कि उन्हें हर बात के लिए पैसे चाहिए. क्या हमने ऐसे ही लोकतंत्र की कल्पना की थी, जहां मानव के वेश में समाज में दानवों का आतंक है? कानून बनानेवाला ही कानून तोड़ रहा है. आम लोगों को गुमराह किया जा रहा है. ऐसे में सरकार खुद बचे या बचाये, उसे भी नहीं पता और जनता तो राम भरोसे है ही.
।। रितेश कुमार दुबे ।।
(कतरास)