धर्मातरण विरोधी कानून बनने पर भविष्य में आगरा सरीखी घटना को आपराधिक मामला माना जायेगा. यह कानून किसी भी धर्म या मत द्वारा जबरन धर्मातरण पर रोक लगायेगा, चाहे वह हिंदुओं द्वारा हो, मुसलमानों, ईसाइयों या बौद्धों द्वारा.
हजार साल के विवादास्पद इतिहास से जन्मी किसी सामाजिक समस्या के समाधान में संविधान हमेशा कारगर नहीं होता. ऐसी घटनाओं पर सरकारों का भी हमेशा नियंत्रण नहीं होता. कई बार तो ऐसी घटनाएं ही सरकारों को नियंत्रित करती हैं. आगरा की घटना, जहां कुछ कट्टरपंथियों ने कुछ मुसलमानों की ‘घर वापसी’ का आह्वान किया और गरीबी तथा पलायन जैसे हालात में जीने की उनकी मजबूरी का इस्तेमाल दबाव बनाने के लिए किया, ने समुदायों के आपसी संबंधों की ठिठुरती अंतर्धारा को फिर से सतह पर ला दिया है.
इस पर केंद्र सरकार का रुख स्पष्ट और भेदभाव रहित है. सरकार ने समस्या की जड़ पर प्रहार का प्रयास किया और जबरन धर्मातरण को प्रतिबंधित करने के मकसद से कानून बनाने में सभी पार्टियों से सहयोग की अपील की. इसमें प्रभावी शब्द है ‘जबरन’. इसे लेकर किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए, न तो कानूनी रूप से और न ही नैतिक रूप से. कोई भी धर्म जबरन धर्मातरण की अनुमति नहीं देता है. मसलन, कुरान इस मामले में बेहद स्पष्ट है. सुरा 2 की आयत 256 में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म में किसी तरह की बाध्यता नहीं होनी चाहिए. कुरान के आधिकारिक अनुवाद में अब्दुल्ला यूसुफ अली ने इसे स्पष्ट किया है- ‘धर्म में बाध्यता अप्रासंगिक है, क्योंकि धर्म को मानने के लिए आस्था और इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, जिसके लिए किसी तरह की जोर-जबरदस्ती का कोई अर्थ नहीं है.’ यदि अतीत में धर्मातरण के लिए कभी दबाव डाला गया था, तो वह भी गलत है. एक लोकतांत्रिक समाज और हुकूमत में जबरन धर्म परिवर्तन का कोई स्थान नहीं है. हिंदू धर्म के उदार दर्शन और सिद्धांतों में भी ऐसी जबरदस्ती की कोई बैधता नहीं है.
कहा जा सकता है कि इस कानून को संसद के अलावा संवैधानिक संस्थाओं के समर्थन की भी जरूरत होगी. इसलिए सरकार को मशविरा का दायरा बढ़ाते हुए इस संदर्भ में विश्वसनीय धार्मिक नेताओं से राय लेनी चाहिए और यह प्रक्रिया एक निश्चित समय सीमा में पूरी करनी चाहिए. हालांकि इसे कानूनी जामा पहनाने की अंतिम जिम्मेवारी संसद और इसमें जनता का प्रतिनिधित्व करनेवाले राजनीतिक दलों की ही है. यह आश्चर्यजनक है कि धर्मातरण की घटना के विरोध में कुछ पार्टियां मुखर हैं, जिसकी शुरुआत कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी द्वारा की गयी है, लेकिन कानून बनाने के सरकार के विचार पर उन्होंने चुप्पी साध रखी है. धर्मातरण विरोधी कानून बनने पर भविष्य में आगरा सरीखी घटना को आपराधिक मामला माना जायेगा. यह कानून किसी भी धर्म या मत द्वारा जबरन धर्मातरण पर रोक लगायेगा, चाहे वह हिंदुओं द्वारा हो, मुस्लिमों, ईसाइयों या बौद्धों द्वारा. माना जा रहा था कि कांग्रेस, सपा, विभिन्न जनता दल और मार्क्सवादियों का भी यही उद्देश्य है. खास कर मार्क्सवादियों में धर्म को लेकर जिस तरह का संदेह है, अपेक्षा थी कि वे इसका तत्काल समर्थन करेंगे. लेकिन, वे विरोध को हवा दे रहे हैं. आखिर क्यों?
मोदी सरकार का शुरू से ही लक्ष्य सुशासन रहा है. वह सांप्रदायिकता के किसी भी रूप को प्रोत्साहित नहीं कर रही है. सरकार ने हर तरह से इसे स्पष्ट किया है. बीते दिन एक टीवी चैनल द्वारा आयोजित सार्वजनिक बहस में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस बात को मजबूती से रखा. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी यही कहा है. आज के भारत की आकांक्षा और मांग है कि समृद्धि के लिए कार्ययोजना बने, न कि भावनाओं और अलगाव की राजनीति हो. एक आम समझ कहता है कि देश में समृद्धि शांति के बिना नहीं आ सकती और शांति की शुरुआत घर से ही होती है.
यह समझना जरूरी है कि हमारी मौजूदा केंद्र सरकार किस दिशा में काम करना चाहती है और इसकी सीमा क्या है? यह 2019 तक कहां खड़ा होना चाहती है, जब इसे फिर से जनादेश के लिए जनता के पास जाना होगा? इन सवालों के जवाब में कोई भ्रम नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में अपने पहले भाषण में ही कहा था कि यदि सरकार गरीबों के कल्याण के लिए काम नहीं कर पाती है तो उसके होने का कोई मतलब नहीं है. भाजपा ने पिछला आम चुनाव एक स्पष्ट संदेश के साथ जीता था- ‘सबका साथ, सबका विकास’. सब में अल्पसंख्यक भी शामिल हैं. प्रधानमंत्री ने बार-बार दोहराया है कि वे चाहते हैं कि भारत के मुसलमानों के एक हाथ में कुरान हो तो दूसरे हाथ में कंप्यूटर. सरकार का यह केंद्रीय संदेश तनिक भी नहीं बदला है. हकीकत यही है कि केंद्र सरकार अवरोधों के बावजूद आर्थिक सुधारों की दिशा में आगे बढ़ रही है. बीमा नियामक विधेयक में संशोधन करके और कोल ब्लॉक विधेयक को पास करके सरकार ने स्पष्ट संकेत दे दिया है.
धर्म, व्यक्ति के जीवन का नितांत निजी मामला होना चाहिए. सार्वजनिक जीवन में हर किसी के लिए एक ही किताब है- संविधान. राजनीति में हर किसी का एक ही दायित्व होता है- जनहित में काम.
एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
delhi@prabhatkhabar.in