झारखंड सड़कों के विस्तार के मामले में राष्ट्रीय औसत के सामने भले ही कहीं न ठहरता हो, मगर अच्छी सड़कों की बार-बार मरम्मत होती दिख जाती है. यह मन में शंका पैदा करती है. कभी-कभी तो बिलकुल दुरुस्त सड़क की मरम्मत होनी शुरू हो जाती है. राजधानी रांची में यह खेल इन दिनों चल रहा है. खराब सड़कें अपनी जगह कायम हैं, लेकिन अच्छी सड़कों का मरम्मत का काम तेजी से चल रहा है. राजधानी के किसी भी मुहल्ले में चले जाइए, सड़कों का बुरा हाल है.
बड़े-बड़े बोल्डर उभरे साफ दिखते हैं. पथ निर्माण विभाग की मेहरबानी गिनती की मुख्य सड़कों की तरफ ही रहती है. रांची की सबसे अच्छी सड़क स्टेशन रोड का मरम्मत का काम तो प्राय: चलता ही रहता है. इसी तरह कोकर से मेन रोड को जानेवाली सड़क का भी आये दिन कालीकरण होता रहता है. बाकी इसी के आस-पास की सड़क वर्षो से जस की तस अपनी दुर्दशा पर रो रही हैं. इससे मन में यह आशंका उठती है कि दाल में कुछ काला जरूर है. दुरुस्त सड़कों के दोबारा कालीकरण में खर्च कम होता है और जेब ज्यादा भरती है. वहीं, बदहाल सड़कों पर खर्च अधिक आता है और कमाई भी कम होती है.
ये सिर्फ रांची का खेल नहीं है. पूरे झारखंड में यही खेल चलता रहता है. जिन सड़कों की कथित मरम्मत का काम चल रहा है, उनमें भी सिर्फ दिखावा ही दिखावा है. जो बिजली के खंभे पहले सड़क के किनारे थे अब सड़क के हिस्से बन गये हैं, लेकिन उनको हटाने का कोई काम नहीं हो रहा है. ये खंभे सड़क के लिए हो रहे काम की पोल रहे हैं. झारखंड बनने के बाद से ही झारखंड की सड़कों को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ठेकेदारों, नौकरशाहों और राजनेताओं की तिकड़ी ने मिल कर सभी सवालों को दफन कर दिया. आम जनता हमेशा ही इनकी ठगी का शिकार होती रही है.
माल महाराज का मिर्जा खेलें होली की तर्ज पर सड़कों के विकास के नाम पर इससे जुड़े लोगों की जेबें भरती रही हैं. यही वजह है कि झारखंड में सड़कें कम बनीं और जो बनीं भी, उनका कोई पुरसाहाल नहीं है. और जो सड़कें पहले से अच्छी हैं, उन्हीं का बार-बार रंग-रौगन करके पैसा बनाया जा रहा है. यह वर्षो से होता आ रहा है. ऐसा आगे न हो इसके लिए अब सोचने का समय है.