दक्षिण एशिया के आठ देशों के समूह सार्क का घोषवाक्य है ‘शांति और समृद्धि के लिए गहरा आपसी जुड़ाव’. काठमांडू में हो रहे सार्क देशों के 18वें सम्मेलन में निहित संभावना और सफलता को इस घोषवाक्य की कसौटी पर ही मापा जाना चाहिए.
सार्क के आठ देशों के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) को जोड़ दें, तो वह अमेरिका और चीन के बाद विश्व की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आयेगा. इस संभावना के बावजूद सार्क अपनी तीन दशकों की यात्र में दक्षिण एशियाई क्षेत्र की राजनीति और अर्थव्यवस्था को निर्णायक तौर पर प्रभावित करनेवाला संगठन नहीं बन पाया है.
शांति और समृद्धि के इंजन के रूप में सार्क को गढ़ने का विशेष जिम्मा भारत का है, क्योंकि उसकी सीमाएं अन्य सात सार्क देशों से जुड़ी हुई हैं और दक्षिण एशियाई क्षेत्र का 70 प्रतिशत हिस्सा खुद भारत है. भारत सार्क देशों को इस बात के लिए सहमत कर सकता है कि वे किसी भी द्विपक्षीय मुद्दे को सार्क के सिवाय अन्य किसी मंच से न उठाएं. सार्क देशों के बीच सीमा-विवाद, वाणिज्य-व्यापार, आधारभूत संरचना और पर्यावरण सहित क्षेत्रीय सुरक्षा के ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जिन पर आपसी तनातनी चलती है.
मुद्दों को उठाने और आपसी सहयोग से समाधान की पहल करने में सार्क का मंच महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. लेकिन, ऐसा करने के लिए सार्क की कार्यप्रणाली में बदलाव लाना जरूरी होगा. अभी तक सार्क देशों के बीच ‘मुक्त व्यापार क्षेत्र’ आकार नहीं ले पाया है और न ही सार्क के देश पारस्परिक निवेश के मुहावरे में सोचते हुए क्षेत्रीय विकास की संभावनाओं को कोई नीतिगत रूप दे पाये हैं.
काठमांडू सम्मेलन भारत और पाकिस्तान के लिए एक खास अवसर है, जहां दोनों देश आपसी संबंधों में चली आ रही खटास को दूर करने की कोशिश कर सकते हैं. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ सहित अन्य पड़ोसी देशों को शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित कर नरेंद्र मोदी ने सार्क देशों के बीच सौहाद्र्रपूर्ण संबंध कायम करने की दिशा में सार्थक पहल की थी. प्रधानमंत्री बाद में भी क्षेत्रीय विकास की बात करते रहे हैं. ऐसे में यह आशा की जानी चाहिए कि काठमांडू शिखर सम्मेलन में परस्पर सौहाद्र्र और आर्थिक सहयोग की दिशा में मील का पत्थर साबित होगा.