नेहरू ‘भारत’ को ‘हिंदू पाकिस्तान’ नहीं देख सकते थे. उनकी नीतियां, उनके आदर्श, स्वप्न- आज सब खंडित हैं. जिस ‘गवर्नेस’ और ‘विकास’ की बात की जाती है, उसका नेहरू से कैसा संबंध है? मोदी का ‘नेहरू-प्रेम’ स्वाभाविक नहीं है.
क्या सचमुच प्रधानमंत्री सहित आज के नेताओं को राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के महान नेताओं से गहरा लगाव है या यह मात्र एक नाम-जाप है! गांधी, नेहरू, पटेल क्या मात्र कांग्रेस के नेता थे या उनका कद पार्टी से बड़ा था? स्वाधीनता आंदोलन दासता से मुक्ति का आंदोलन था, जो अधूरा रहा है. वह ब्रिटिश सत्ता विरोध के साथ-साथ असमानता के विरुद्ध भी आंदोलन था, जिसे मात्र कांग्रेस से जोड़ना गलत है. गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, भगत सिंह में वैचारिक विरोध था. आज सभी दल एफडीआइ को लेकर एकमत हैं और इस पर सबमें वैचारिक एकता है. सारे स्वप्न खंडित हो चुके हैं. कांग्रेस के हाथ में कुछ भी न रहे- न इतिहास, न विरासत, न वर्तमान, न भविष्य- इसकी कोशिश शुरू हो चुकी है. आनेवाले दिनों में जयप्रकाश नारायण, लोहिया और आंबेडकर भी संभवत: समाजवादियों और दलितों से अलग कर दिये जायेंगे. यह कोशिश होगी.
नेहरू और मोदी में प्रधानमंत्री होने की एक समानता के अलावा और कोई समानता नहीं है. नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, मोदी वर्तमान प्रधानमंत्री हैं. मोदी द्वारा साठ वर्ष के कांग्रेस शासन पर प्रहार नेहरू पर भी प्रहार है. मोदी की भाषा के संकेतों और अंतध्र्वनियों को समझना जरूरी है. नेहरू की 125वीं वर्षगांठ को दिये गये महत्व का वास्तविक कारण क्या है? यह मात्र रस्म अदायगी है या कुछ और? नेहरू की प्रशंसा से मोदी अपनी एक भिन्न छवि गढ़ रहे हैं.
यह कांग्रेस को नेहरू से अलग कर अपने को नेहरू के समीप लाने की कोशिश भी है. संकेत यह है कि जिस तरह नेहरू ने एक नये भारत का निर्माण किया, उसी तरह मोदी भी एक नये भारत का निर्माण कर रहे हैं. गांधी को केवल स्वच्छता अभियान से नहीं जोड़ा जा सकता और न नेहरू को ‘चाचा नेहरू’ से. यह महान व्यक्तियों को एक सीमित दायरे में समेट देने की कोशिश है, जो अखबारी खबर से अधिक दूर तक नहीं जा सकती. मोदी के ‘नेहरू प्रेम’ की वास्तविकता कांग्रेस को खिझाने भर की नहीं है. भारतीय प्रधानमंत्रियों में मोदी नेहरू और इंदिरा को बहुत सोच-समझ कर याद करते हैं, क्योंकि इसके बाद उनकी तुलना सिर्फ इन्हीं दोनों से हो सकेगी. नेहरू ने ‘चाणक्य’ छद्म नाम से अपने तानाशाह होने को लेकर एक लेख लिखा था. वे कभी तानाशाह न रहे. इंदिरा ने कोई लेख नहीं लिखा. उन्होंने आपातकाल लागू किया. मोदी ऐसा कोई लेख कभी नहीं लिखेंगे.
मोदी को अपनी ‘इमेज’ की अधिक चिंता है. नेहरू-पटेल बहस का एक अन्य पक्ष भी है. गांधी, पटेल, मोदी- तीनों गुजराती हैं. जिस प्रकार गुजरात के विकास मॉडल को पूरे देश में लागू किया जा सकता है, उसी प्रकार गुजरात के नेताओं की एक छवि भी निर्मित होगी. गुजरात मात्र एक राज्य है. नेहरू ने उदार, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत- आधुनिक भारत को महत्व दिया. वे एक नये भारत के निर्माता थे. अपने ‘विजन’ और ‘मॉडल’ के अनुरूप उन्होंने जिस भारत का निर्माण किया, वह गांधी का भारत नहीं था. आकर्षक और पराया था. गांधी से उनका मतभेद था, फिर भी गांधी ने पटेल को नहीं, उनको अपना उत्तराधिकारी चुना था. नेहरू के यहां संवाद, असहमति और तीखे प्रश्नों के लिए स्थान था. उनके पहले मंत्रिमंडल के 14 मंत्रियों में से छह गैर-कांग्रेसी थे-बीआर आंबेडकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जॉन मथाई, बलदेव सिंह, षणमुगम शेट्टी और सीएच भाभा. आंबेडकर गांधी और कांग्रेस के कटु आलोचक थे. नेहरू के यहां विरोधी का सम्मान था. उन्होंने एक लोकतांत्रिक, सेकुलर और बहुलतावादी राष्ट्र-राज्य की नींव रखी. ‘सही साधनों से सही भारत की नींव.’ गांधी ने 18 जनवरी, 1948 को उन्हें एक पत्र में लिखा था-‘बहुत वर्ष जियो और हिंद के जवाहर बने रहो.’ नेहरू 75 वर्ष तक जीवित रहे. 1964 के बाद भारत का दृश्य बदलने लगा. चौथे चुनाव (1967) में भारतीय जनसंघ को अधिक सीटें आयीं. इंदिरा के आने के बाद राजनीति चुनाव में सिकुड़ गयी.
नेहरू 25 वर्ष से अधिक स्वाधीनता-आंदोलन में रहे. अक्तूबर, 1963 में ‘प्ले ब्वॉय’ पत्रिका को दिये अपने इंटरव्यू में उन्होंने 45 प्रश्नों के उत्तर दिये थे. गांधीवादी विचारधारा से दूर होने और अपने समय में संगठित हिंसा के उपकरणों/हथियारों की बात उन्होंने कही थी. गांधी और रवींद्रनाथ ठाकुर को उन्होंने अपने समय के भारत का जन्मदाता कहा था. वे अपने को इन दोनों की ‘अपूर्ण’ संतान कहते थे. नेहरू से प्रेम का अर्थ नेहरू के विचारों से जुड़ना है.
नेहरू का निधन 1964 में हुआ. वास्तविक निधन-वर्ष क्या है- शरीर का नहीं, विचारों, नीतियों, दृष्टियों और सिद्धांतों का? अभी सुनील खिलनानी का एक लेख प्रकाशित हुआ है-‘नेहरू, इयर ऑफ डेथ, 2014?’ हिंदी के कुछ कवि-पत्रकार ‘16 मई के बाद’ शीर्षक से विभिन्न शहरों में जो काव्य आयोजन कर रहे हैं, वे 16 मई को छह दिसंबर से कहीं अधिक बड़ी तारीख मान रहे हैं. सुनील खिलनानी ने 2014 को नेहरू का निधन वर्ष इसलिए कहा है कि इसी वर्ष केंद्र में भाजपा बहुमत में आयी. नेहरू धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक थे. 1933 में गांधी को उन्होंने एक पत्र लिखा था कि धर्म उनके लिए महत्व नहीं रखता. रामचंद्र गुहा ने 9 और 19 फरवरी, 1922 को उनके द्वारा गांधी को लिखे पत्रों की खोज की है, जो उनके ‘कलेक्टेड वर्क्स’ में नहीं हैं. अपने इन दोनों पत्रों में नेहरू ने जेल में पढ़नेवाली पुस्तकों का जिक्र किया है. नेहरू ने मननपूर्वक भगवद्गीता पढ़ी थी, पर उन्होंने किसी को भी ‘भगवद्गीता’ की प्रति भेंट नहीं की. उनका ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ धार्मिक ग्रंथों में सीमित नहीं था.
असहयोग आंदोलन में हिंदू-मुसलिम साथ थे. बाद में दोनों में बिलगाव आया. भारतीय राजनीति में धर्म को नेहरू ने ‘खतरनाक और विभाजक शक्ति’ समझा. नेहरू ने प्राय: सभी धर्मो का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया था- 1936 में अपनी ‘आत्मकथा’ में उन्होंने लिखा था कि संगठित हिंसा उन्हें संत्रस और घृणा से भर देती है. वे अंधास्था, कट्टरता, मतांधता, धर्माधता के ही नहीं, प्रांतवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद- सबके विरुद्ध थे. नेहरू ने सदैव विभाजनकारी तत्वों की भर्त्सना की. ‘रूपाभ’ पत्रिका के प्रवेशांक (जुलाई 1938) में प्रकाशित अपने लेख ‘विज्ञान और युग’ में उन्होंने अपने को ‘विज्ञान का भक्त’ कहा है. राष्ट्र-निर्माण में उनके यहां ‘धर्म’ की कोई जगह नहीं थी. वे ‘भारत’ को बतौर ‘हिंदू पाकिस्तान’ देख नहीं सकते थे. उनकी ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ 1991 में खत्म हो गयी. नेहरू की नीतियां, उनके आदर्श, स्वप्न- आज सब खंडित हैं. जिस ‘गवर्नेस’ और ‘विकास’ की बात की जाती है, उसका नेहरू से कैसा संबंध है? मोदी का ‘नेहरू-प्रेम’ स्वाभाविक नहीं है. वह हो भी नहीं सकता. दोनों की दिशाएं भिन्न हैं.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
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