मैं आपके अखबार के माघ्यम से कहना चाहता हूं कि भारत युवाओं का देश है. यहां के युवाओं को 18 साल में मताधिकार प्राप्त हो जाता है. मगर उन्हीं युवाओं को नेतृत्व करने की बात आती है, तो उन्हें सात साल तक इंतजार करना पड़ता है. यहां एक सवाल यह भी पैदा होता है कि जब किसी युवा में नेतृत्वकर्ता को चुनने की समझ 18 साल में आ जाती है, तो क्या उसमें नेतृत्व करने की क्षमता विकसित नहीं होती? यदि होती है, तो फिर उसे चुनाव लड़ने का अधिकार क्यों नहीं दिया जाता?
सात साल तक इंतजार कराने के पीछे तर्क यह भी है कि किसी को किसी उद्देश्य के लिए एक तार्किक एवं अनुभवजन्य विधि है, जिसमें स्वयं ही अनुभव एवं आंतरिक/बाह्यज्ञान तथा सकारात्मक परिकल्पना की आवश्यकता होती है. जब हमारा संविधान यह स्वीकार करता है कि 18 वर्ष की उम्र में लोगों में परिपक्वता एवं अनुभव क्षमता विकसित हो जाती है, तो उन्हें स्वयं भी उसी उम्र में चनाव का अधिकार क्यों नहीं? इसलिए यह विषय महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब हममें अच्छे-बुरे पहचान और देशहित आदि में अंतर करने की शक्ति है, तो स्वयं ही उसी उम्र में चुने जाने के अधिकार भी मिलना चाहिए.
इतना ही नहीं अगर हम आपराधिक कृत्य की बात करें, तो पता चलता है कि अब तो न्यायपालिका और कार्यपालिका भी बाल अपराध की श्रेणी में मान्य उम्र को और भी घटा देने पर समुचित विचार कर रही है. जो लोग यह तर्क देते हैं कि नेतृत्व करने के लिए किसी व्यक्ति में राजनीतिक एवं सामाजिकजरूरी है और इसे प्राप्त करने में करीब 25 साल तक का समय गुजर जाता है, उन्हें यह भी समझ लेना चाहिए कि देश के युवाओं में 18 साल में सारी परिपक्वता आ जाती है.
राजेश पाठक, गिरिडीह