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परिवर्तन की राह पर कांग्रेस

।। नीरजा चौधरी ।।(राजनीतिक विश्लेषक)– कांग्रेस में फेरबदल उसके लिए उम्मीद जगानेवाला है. कांग्रेस मोदी के उभार को रोकना चाहेगी. इसलिए उसका दावं क्षेत्रीय दलों के साथ नये गंठबंधनों की ओर बढ़ने का होगा. – आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस में जो बड़े पैमाने पर सांगठनिक फेरबदल हुआ है, इसकी उम्मीद पहले से ही […]

।। नीरजा चौधरी ।।
(राजनीतिक विश्लेषक)
– कांग्रेस में फेरबदल उसके लिए उम्मीद जगानेवाला है. कांग्रेस मोदी के उभार को रोकना चाहेगी. इसलिए उसका दावं क्षेत्रीय दलों के साथ नये गंठबंधनों की ओर बढ़ने का होगा. –

आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस में जो बड़े पैमाने पर सांगठनिक फेरबदल हुआ है, इसकी उम्मीद पहले से ही थी. करीब नौ साल बाद ऐसा फेरबदल हुआ है और सही मायनों में मौजूदा राजनीतिक गतिविधियों के मद्देनजर कांग्रेस को ऐसे बदलाव की सख्त जरूरत भी थी. इस बदलाव के लिए कांग्रेस ने जो ‘टाइमिंग’ चुना है, वह बहुत महत्वपूर्ण है. भाजपा-जदयू गंठबंधन टूटने के बाद जब एनडीए में उथल-पुथल की स्थिति है और बाकी दल अपने सांगठनिक ढांचे को मजबूत करने के बारे में अभी सोच ही रहे हैं, ऐसे समय में कांग्रेस वर्किग कमिटी यानी सीडब्ल्यूसी में यह फेरबदल कांग्रेस को राजनीतिक तौर पर फायदा पहुंचानेवाला साबित हो सकता है.

इस फेरबदल में राहुल गांधी की छाप स्पष्ट नजर आती है. पिछली बार जब फेरबदल हुआ था, उसमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आर्थिक सुधार वाली छाप थी, जबकि कांग्रेस का विचार था कि बदलाव आगामी चुनाव को जीतने की रणनीति की दृष्टि से होना चाहिए. तब मनमोहन सिंह ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि आर्थिक सुधार के लिए उन्हें कड़े आर्थिक फैसले लेने हैं, ऐसा नहीं हुआ तो हालात मुश्किल हो जाएंगे. लेकिन इस बार के फेरबदल में राहुल गांधी की छाप इसलिए है, क्योंकि इस बार मुद्दा आर्थिक सुधार का नहीं है, बल्कि संगठन मजबूत करने का है, ताकि पार्टी आगामी आम चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सके.

सच कहें तो कांग्रेस एक ट्रांजिशन फेज (परिवर्तन के दौर) से गुजर रही है और यह सारी कवायद राहुल की तरफ से हो रही है. हालांकि यहां तक पहुंचने में राहुल को कुछ वक्त लगा है, लेकिन अब यह स्पष्ट हो चला है कि संगठन की जिस मजबूती की बात राहुल हमेशा करते आये हैं, यह बदलाव उसी की परिणति है. राहुल ने कंफर्ट लेवल फंक्शनिंग (जिन पर राहुल को ज्यादा भरोसा है) के तहत अपने नजदीकी सहयोगियों को बेहतर मौका दिया है. इन सबके बावजूद वह अभी पीएम पद के लिए प्रोजेक्ट नहीं किये जायेंगे.

कांग्रेस के कई नेताओं ने हाल ही में इस बात की तस्दीक की है कि राहुल संगठन को मजबूत करना चाहते हैं, क्योंकि जब तक संगठन मजबूत नहीं होगा, तब तक किसी प्रोजेक्ट का कोई मतलब नहीं है. ऐसे में राहुल एक मैराथन रनर के रूप में नजर आ रहे हैं, जिन्हें बहुत तेज नहीं भागना है, धीरे-धीरे अपनी मंजिल-ए-मकसूद तक पहुंचना है.

सीपी जोशी को पश्चिम बंगाल, असम और अंडमान निकोबार के साथ ही बिहार का प्रभारी बनना राहुल की सांगठनिक रणनीति को स्पष्ट करता है. जोशी राहुल के विश्वासपात्र हैं. चूंकि बिहार में कांग्रेस की जमीन अभी मजबूत नहीं है, इसलिए सीपी जोशी वहां रिवाइवल (पुनरुत्थान) के लिए नहीं लाये गये हैं, बल्कि अन्य पार्टियों के साथ निगोसिएशन (समझौता) करने के लिए लाये गये हैं.

कांग्रेस जानती है कि बिहार में आगे बढ़ना उसके लिए बड़ी चुनौती है, इसलिए जोशी राहुल गांधी के एजेंडे को अच्छी तरह से लेकर चलेंगे और नरेंद्र मोदी के उभार से जो वर्ग सशंकित महसूस करेगा, उन्हें साधने की पूरी कोशिश होगी. ऐसी सुगबुगाहट है कि चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भाजपा नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति के नेता के रूप में प्रोजेक्ट करेगी. नरेंद्र मोदी ने कहा है कि वे लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल की लोहे की मूर्ति स्थापित करेंगे. इससे साफ जाहिर है कि भाजपा चुनाव अभियान के एक सिरे पर ‘बैकवर्ड पॉलिटिक्स’ का खेल खेलेगी.

पार्टी को लगता है कि नीतीश से अगड़ी जातियां पहले से नाराज चल रही हैं. ऐसे में उसकी कोशिश दूसरे अगड़ी जातियों को और बेहतर तरीके से साधने की होगी. ऐसे में कांग्रेस के लिए यह तय करना बड़ी चुनौती होगी कि वह किसे साधने की रणनीति पर अमल करे. देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी इस चुनौती को कैसे स्वीकार करती है और जोशी की पहल कितनी मजबूत नजर आती है.

एक संभावना यह भी जतायी जा रही है कि कांग्रेस जिधर भी जायेगी, जिस किसी के साथ भी जुड़ेगी, अल्पसंख्यकों का रुझान उस ओर हो सकता है. ऐसे में यथार्थ रूप में तो नहीं, लेकिन नरेंद्र मोदी के कारण कांग्रेस को बिहार में जरा-सा मनोवैज्ञानिक फायदा होने की उम्मीद की जा सकती है.

हालांकि इस अनुमानित फायदे के बीच सही मायने में अभी न तो कांग्रेस किसी जल्दीबाजी में दिख रही है और न ही भाजपा से अलग होने के बाद जदयू या नीतीश कुमार. नये हालात में नीतीश कुमार चाहेंगे कि यूपीए सरकार अपना कार्यकाल पूरा करे, क्योंकि गंठबंधन टूटने के बाद उन्हें भी लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए थोड़ा लंबा समय चाहिए. कांग्रेस भी इसी लंबे समय को साधने के लिए बचाव के अपने सभी तरीकों को अपना रही है, जिसमें नीतीश कुमार को अपने साथ लेकर चलने की कोशिश भी शामिल है.

वहीं झारखंड में कांग्रेस और झामुमो के बीच गंठबंधन की कवायद जारी है और बहुत संभावना है कि जल्द ही वहां इन दोनों के गंठबंधन की सरकार बन जाये. इसके बाद ही यह उम्मीद की जा सकती है कि वहां लोकसभा का चुनाव कांग्रेस और झामुमो एक साथ लड़ें. वैसे कांग्रेस चाहेगी कि वहां गंठबंधन हो. जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार नहीं है, वहां वह क्षेत्रीय दलों के साथ गंठबंधन कर अपनी स्थिति मजबूत करना चाहेगी. कांग्रेस के लिए यही बेहतर विकल्प भी है, जिसे वह फिलहाल भुनाना चाहेगी.

जहां तक पश्चिम बंगाल का सवाल है तो वहां के लिए कांग्रेस की रणनीति अभी पूरी तरह से खुली नहीं है. इसलिए कुछ भी कहना जल्दीबाजी होगी. लेकिन ममता बनर्जी से शहरी क्षेत्र के कुछ लोगों में जो नाराजगी है, कांग्रेस उसे भुनाने की कोशिश कर सकती है. वहां ग्रामीण क्षेत्र पर ममता की पकड़ मजबूत है और कुछ ग्रामीण क्षेत्र पर अब भी वाम मोरचा मजबूत स्थिति में है.

उधर, उत्तर प्रदेश में भाजपा तीन मंत्रों के साथ आगे आ रही है. विकास, हिंदुत्व और मजबूत नेतृत्व. अमित शाह को यूपी की कमान देकर पार्टी हिंदुत्व मंत्र पर तो आ गयी है, लेकिन विकास और मजबूत नेतृत्व अभी बाकी है. ऐसे में राहुल गांधी ने मधुसूदन मिस्त्री को वहां का प्रभारी बना कर अपनी रणनीति का परिचय दिया है. मिस्त्री इससे पहले कर्नाटक के प्रभारी थे, जहां उनके कैंडिडेट सेलेक्शन ने पिछले चुनाव में चमत्कार का सा काम किया है. कांग्रेस इसका फायदा उत्तर प्रदेश में भी उठाना चाहती है.

कुल मिला कर देखें तो कांग्रेस में हालिया फेरबदल उसके लिए उम्मीद जगानेवाला है. कांग्रेस हर हाल में नरेंद्र मोदी के उभार को रोकना चाहेगी. इसलिए कांग्रेस का दावं क्षेत्रीय दलों के साथ नये गंठबंधनों की ओर बढ़ने का होगा. सोनिया गांधी ने 2004 में ‘हिट द रोड, गेट द पार्टी’ के तहत रोड शो की थीं. बहुत संभावना है कि राहुल गांधी भी आगामी आम चुनाव से पहले इस फामरूले को आजमाते नजर आयें. आखिर उन्हें पार्टी संगठन मजबूत जो करना है.

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