मोदी भाजपा के पहले ‘सियासी रॉक-स्टार’ हैं, जो मैडिसन स्क्वॉयर से मुंबई और गांधीनगर से गोहाना तक अपनी असरदार सियासी शैली, अभूतपूर्व कॉरपोरेट-समर्थन और खास पैकेजिंग के बल पर लोगों को एक हद तक ‘मुग्ध’ कर सकते हैं.
दो राज्यों- महाराष्ट्र और हरियाणा- में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे 19 अक्तूबर को आएंगे, लेकिन भाजपा नेतृत्व पहले ही अपनी कामयाबी का डंका पीट रहा है. डंका क्यों न पीटे, देश के सभी प्रमुख टीवी चैनलों के ‘एक्जिट पोल’ इन दोनों राज्यों में भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने की भविष्यवाणी जो कर रहे हैं. दोनों राज्यों में पार्टी ने अपने दम पर चुनाव लड़ा, इसलिए यदि वह बहुमत पाती है या उसके करीब पहुंचती है तो वाकई यह उसकी बड़ी कामयाबी होगी. लेकिन, इस लेख में हम किसी भविष्यवाणी के बजाय उस प्रवृत्ति पर विचार करने जा रहे हैं, जो भाजपा के अंदर पुरजोर ढंग से उभरती नजर आ रही है. यह प्रवृत्ति है- देश पर एकछत्र राज करने की उसकी महत्वाकांक्षा. एक राजनीतिक दल के रूप में उसे ऐसी आकांक्षा पालने का हक है, पर हमारे जैसे देश में किसी दल-विशेष की ऐसी आकांक्षा के खतरे भी हैं, जो अतीत में ठोस शक्ल के साथ उजागर होते रहे हैं.
आजादी के कुछ ही बरस बाद जम्मू-कश्मीर व केरल की सरकारों को केंद्र के इशारे पर जिस तरह बर्खास्त किया गया था, वह इतिहास का हिस्सा है. अगस्त, 1953 में कश्मीर में शेख मो अब्दुल्ला की सरकार ही नहीं गयी, उन्हें वजीरे-आजम के पद पर रहते हुए हिरासत में लिया गया था. केरल में नंबूदरीपाद की निर्वाचित सरकार बर्खास्त कर दी गयी. कांग्रेसी-सर्वसत्तावाद की वे खतरनाक छवियां हमारे राजनीतिक पटल पर लगातार ङिालमिलाती रहीं और 1975-76 में वे अपनी खौफनाक तस्वीर के साथ पूरी तरह छा गयीं. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के कई नारे खूब चर्चित हुए.
उनमें एक नारा था- ‘कांग्रेस मुक्त भारत’. उन दिनों पार्टी के शीर्ष नेता नरेंद्र मोदी अपनी हर रैली-सभा में ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का आह्वान जरूर करते थे. लेकिन, महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के दौरान भाजपा ने जिस तरह अपने चुनावी-समीकरण बिठाये, नये-पुराने गंठबंधन सहयोगियों को किनारे लगाया, उससे साफ लगता है कि पार्टी का मौजूदा नेतृत्व कांग्रेस के सफाये की बात सिर्फ इसलिए कर रहा है कि 21 वीं सदी के भारत में वह अपना एकछत्र राज चाहता है. कुछ वैसे ही, जैसे आजादी के बाद से 1975-76 तक कांग्रेस ने एकछत्र राज किया. प्रधानमंत्री मोदी और उनके खास सहयोगी, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के नाम से चाहे जितनी चिढ़ हो, असलियत में वे इन दोनों ैकांग्रेसी-सितारों’ की तरह केंद्रीय स्तर पर और प्रमुख राज्यों में अपना पूर्ण एकाधिकार चाहते हैं. इनमें और ‘कांग्रेसी सितारों’ के बीच बड़ा फर्क भी है. पंडित नेहरू आजादी की लड़ाई से उभरे थे, सेक्युलरिज्म व वैज्ञानिक-सोच के प्रति उनकी असंदिग्ध प्रतिबद्धता अपने समकालीनों में उन्हें विशिष्ट बनाती थी. भाजपा तो संघ से निकली धारा है, जिसकी बुनियाद ही हिंदुत्व-आधारित सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद है. ऐसे में नये किस्म के सर्वसत्तावाद के खतरों का अंदाज लगाना कठिन नहीं होगा.
संघ-प्रेरित सर्वसत्तावाद की यही चाहत आज देश के राजनीतिक समीकरणों को बदलना चाहती है. महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में पार्टी के फैसले इसी विचार से प्रेरित थे. हरियाणा में विश्नोई की पार्टी के साथ भाजपा का संभावित गंठजोड़ परवान चढ़ने से पहले ही धाराशायी हो गया. महाराष्ट्र में शिवसेना से पुराना गंठबंधन टूट गया. इन दोनों परिघटनाओं को ज्यादातर व्याख्याकारों ने सीटों की संख्या या मुख्यमंत्री पद को लेकर छिड़े घमासान का नतीजा माना, पर बात इतनी सी नहीं थी. ‘एकछत्र राज’ की आकांक्षा इसमें निर्णायक कारक थी. आम चुनाव के नतीजों से उत्साहित मोदी-शाह को पूरा एहसास था कि दोनों राज्यों के बहुकोणीय मुकाबले में उनकी पार्टी बेहतर प्रदर्शन करेगी. दिल्ली के बिल्कुल नजदीक होने के चलते हरियाणा में केंद्र की राजनीति का तेजी से असर होता है. लगातार दस साल सरकार में रहने और कुछ बड़े पार्टी नेताओं या उनके परिजनों के विवादास्पद जमीन-सौदों के कारण कांग्रेस के भूपिंदर सिंह हुड्डा की नैया काफी पहले से डगमगा रही थी. रही-सही कसर चौटाला की पार्टी ने निकाल दी. दोनों के बीच जाट वोटों का विभाजन लाजिमी हो गया. ऐसे अनुकूल माहौल में भाजपा कुलदीप विश्नोई को अपने संभावित गंठबंधन का नेतृत्व क्यों सौंपती?
महाराष्ट्र में इससे ज्यादा संगीन परिदृश्य था. देश के दूसरे सबसे बड़े राज्य में ‘हिंदुत्व’ के तीन ध्वजवाहक दिखे. मोदी-शाह ने तय कर लिया कि आज के अनुकूल माहौल का इस्तेमाल अपने और सिर्फ अपने लिए होना चाहिए. अनुकूल सियासी-हवा का फायदा शिवसेना या एमएनएस को क्यों दें? हिंदुत्व के ध्वजवाहक तीन-तीन क्यों, सिर्फ कोई एक दल क्यों न हो! तीनों लगभग एक नस्ल की पार्टियां हैं. ‘मराठी-मानुष’ वाले पहलू को छोड़ कर इनके डीएनए में पर्याप्त समानताएं हैं. मोदी की भाजपा को यह स्वीकार्य नहीं कि उनके एजेंडे पर एक ही प्रदेश में तीन-तीन दल काम करें. गंठबंधन टूटने के पीछे यह एक बड़ा कारण था. जब तक भाजपा सूबे में शिवसेना का जूनियर-पार्टनर रही, उसे गंठबंधन से गुरेज नहीं था. हालात जैसे ही बदले और वह नंबर-वन पार्टी बनी, उसे ‘सेना’ के साथ अपने गठबंधन को ध्वस्त करना श्रेयस्कर लगा.
भाजपा की यह चाल पुरानी है. हिंदी क्षेत्र में उसने समाजवादियों के कंधे का जम कर इस्तेमाल किया. गोवा में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी का दामन थाम कर अपने को पहले बड़ा किया. जैसे ही वह गंठबंधन में नंबर-वन पार्टी बनी, अपने मूल्यवान सहयोगी गोमांतक पार्टी को किनारे कर दिया. महाराष्ट्र बड़ा राज्य है, इसलिए यहां उसे उभरने में कुछ ज्यादा वक्त लगा. चतुर सियासी खिलाड़ी की तरह भाजपा प्रतिकूल परिस्थिति में अपने लिए मजबूत कंधे वाला साथी खोजती है और फिर कालांतर में स्वयं मजबूत होकर अपने साथी का कंधा बहुत बेरहमी के साथ झटक भी देती है. अब तक उसके इस चरित्र को कुछेक राजनेताओं ने ही समय रहते समझा. इनमें ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक एवं जदयू नेता नीतीश कुमार प्रमुख हैं. हालांकि भाजपा में सर्वसत्तावाद की प्रवृत्ति पहले से रही है, पर मोदी के अवतरण के बाद उसमें और तीव्रता आयी है.
मोदी भाजपा के पहले ‘सियासी रॉक-स्टार’ हैं, जो मैडिसन स्क्वॉयर से मुंबई और गांधीनगर से गोहाना तक अपनी असरदार सियासी शैली, अभूतपूर्व कॉरपोरेट-समर्थन और खास पैकेजिंग के बल पर लोगों को एक हद तक ‘मुग्ध’ कर सकते हैं. वह 2014 की अपनी कामयाबी को लंबे समय तक के लिए स्थायी मान कर चल रहे हैं. उनका इरादा कम-से-कम 2024 तक एकछत्र राज करने का है. आरएसएस इसे बड़ी संभावना के रूप में देख रहा है. वह इस दरम्यान सेक्युलर-लोकतांत्रिक भारत को हिंदू-राष्ट्र में रूपांतरित करने के अपने 89 साल पुराने सपने को साकार करना चाहेगा. सवाल है, भारत क्या चाहता है!
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
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