कांग्रेस के बड़े नेता बीके हरिप्रसाद रांची आये और झारखंड विधानसभा के चुनाव गंठबंधन में लड़ने की घोषणा की. झारखंड मुक्ति मोरचा की अगुवाई को उन्होंने स्वीकार किया. साथ में राजद भी होगा. अभी जो गंठबंधन सरकार में है, कांग्रेस उस गंठबंधन के फामरूले को ही आगे बढ़ाना चाहती है. सवाल गंठबंधन का नहीं है.
सवाल है कि जिस कांग्रेस की इस क्षेत्र में कभी तूती बोलती थी, आज वह सभी सीटों पर लड़ने की स्थिति में नहीं है. झारखंड के किसी गांव-पंचायत में चले जायें, कांग्रेसी अब भी मिल जायेंगे. फिर भी कांग्रेस 1990 से राज्य की सत्ता के केंद्र में नहीं है.
गंठबंधन सरकारों में उसके मंत्री रहे हैं, लेकिन कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं रहा है. यही हाल है झामुमो का. यह वो पार्टी है जिसने अलग राज्य के आंदोलन में सबसे लंबा संघर्ष किया. इस पार्टी के मुखिया शिबू सोरेन ने अपना पूरा जीवन झारखंड पाने में लगा दिया, लेकिन अपने बल पर झामुमो भी सरकार नहीं बना पा रहा है और उसे दूसरे दलों का सहारा लेना पड़ रहा है. ऐसी स्थिति में झामुमो जो करना चाहता है, नहीं कर पा रहा है. जब भाजपा के साथ झामुमो था, तो उसे आजादी नहीं थी. अब कांग्रेस के साथ है, यहां भी आजादी नहीं है. कांग्रेस और झामुमो दोनों का इस राज्य में आधार है, लेकिन कहीं न कहीं कमी रह गयी है जिसके कारण अकेले सरकार बनाने की ये पार्टियां हिम्मत नहीं कर पातीं.
जब आप 39 या 32 सीटों पर चुनाव ही लड़ेंगे, तो बहुमत कहां से पायेंगे? दोनों दलों को आत्ममंथन करना होगा कि क्यों ये दल अकेले लड़ कर अपने बूते सरकार नहीं सकते. उन कमियों को दूर करना होगा. कांग्रेस या झामुमो खास सीटों पर सिमट कर रह गये हैं. ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस में नेता नहीं हैं. कांग्रेस में कुछ नेता या कुछ मंत्री ऐसे हैं जिन्होंने अच्छा काम किया है. अगर ऐसा काम 1990 के बाद से पूरे क्षेत्र में किया होता तो अकेले कांग्रेस राज कर सकती थी. स्पष्ट है कि ये दल अपने जनाधार क्षेत्र को बढ़ा नहीं पा रहे हैं. इन दलों में क्षमता है और अगर इन्हें अकेले अपने बल पर कभी सरकार बनानी है तो संघर्ष करने की क्षमता, काम करने की क्षमता बढ़ानी होगी.