।। डॉ भरत झुनझुनवाला ।।
(अर्थशास्त्री)
भारत सरकार का पेटेंट कानून के प्रति रुख अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा दिखता है. सरकार चाहती है कि विदेशी निवेश को बड़े पैमाने पर आकर्षित करे. इसके लिए विकसित देशों का दुलारा बनना होगा. विकसित देशों की मांग है कि भारत अपने पेटेंट कानून को सख्त करे, जिससे विदेशी कंपनियों को अपना माल महंगा बेचने की छूट मिले.
बीते समय में भारतीय न्यायालयों ने दो बहुराष्ट्रीय ड्रग कंपनियों के विरुद्घ निर्णय दिये हैं, जिसके कारण विदेशी निवेशक सदमे में हैं. नोवार्टिस नामक बहुराष्ट्रीय ड्रग कंपनी द्वारा लूकेमिया की दवा ग्लीवेक को 1,20,000 रुपये प्रतिमाह के मूल्य पर बेचा जा रहा था. भारतीय कंपनियां इसे मात्र 8,000 रुपये में बेच रही थीं. नोवार्टिस ने ग्लीवेक को पेटेंट कराने की अर्जी दी थी, जिसे भारतीय पेटेंट ऑफिस ने अस्वीकार कर दिया था, चूंकि ग्लीवेक का आविष्कार 1995 की डब्लूटीओ संधि से पहले हुआ था.
सुप्रीम कोर्ट ने नोवार्टिस की अर्जी को अस्वीकार कर दिया था. हाल में मुंबई हाईकोर्ट ने दूसरी बहुराष्ट्रीय ड्रग कंपनी बेयर के विरुद्घ निर्णय दिया है. भारत सरकार ने डब्ल्यूटीओ संधि के अंतर्गत उपलब्ध अधिकार का उपयोग करते हुए जनहित में दवा को बनाने की छूट भारतीय कंपनी नैटको को दे दी. नैटको ने इस दवा को मात्र 9,000 रुपये में उपलब्ध करा दिया. बेयर ने नेटको द्वारा इस दवा के उत्पादन को हाइकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसे मंुबई हाइकोर्ट ने खारिज कर दिया.
हाल की अमेरिका यात्रा में नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी सरकार के साथ पेटेंट कानून पर एक ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप गठित करने का निर्णय लिया है. अमेरिकी विश्लेषकों का मानना है कि इस वर्किंग ग्रुप के माध्यम से अमेरिका द्वारा भारत को अपने पेटेंट कानून ढीला करने का दबाव बनाया जायेगा. वर्किंग ग्रुप का गठन मोदी द्वारा अमेरिका के सामने झुकने का संकेत देता है. दूसरी तरफ सरकार ने अमेरिकी दबाव के बावजूद डब्ल्यूटीओ में खाद्य सब्सिडी तथा ईरान से तेल आयात के निर्णय लिये हैं. इन दोनों प्रकरणों में भारत सरकार के ढुलमुल रवैये के संकेत मिलते हैं. यह ढुलमुल रवैया ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता है. अंतत: सरकार को डब्ल्यूटीओ और पेटेंट पर स्पष्ट नीति बनानी पड़ेगी.
डब्ल्यूटीओ की दो मुख्य व्यवस्थाएं हैं. पहली, खुला व्यापार. सभी देशों पर बंदिश है कि निर्धारित सीमा से ऊंचे आयात कर नही लगायेंगे. यह व्यवस्था विकसित देशों के लिए विशेषकर हानिप्रद है, चूंकि इनके यहां माल की उत्पादन लागत अधिक आती है. विकसित देशों का धंधा चौपट हो गया है, चूंकि भारत, चीन तथा फिलीपींस जैसे देश माल तथा सेवाओं को डब्ल्यूटीओ की छाया तले सस्ता उपलब्ध करा रहे हैं.
दूसरी व्यवस्था पेटेंट की है. नियम बनाया गया है कि किसी व्यक्ति द्वारा आविष्कार किये गये माल का उत्पादन 20 वर्ष तक कोई दूसरा नहीं कर सकता है. आविष्कारक को पूरे विश्व में मनचाहे दाम पर अपने माल को बिक्री करने की छूट मिल जाती है. इसमें हम बहुत पीछे हैं. वर्ष 2012 में अमेरिका द्वारा 268 हजार पेटेंट कराये गये, जबकि भारत द्वारा मात्र 9 हजार. पेटेंट के क्षेत्र में विश्व में अमेरिका का दबदबा बना हुआ है. अमेरिकी कंपनियां नये माल को महंगा बेच कर भारी लाभ कमा रही हैं.
पेटेंट व्यवस्था से माल का दाम बढ़ता है और जनहित प्रभावित होता है. लेकिन, पेटेंट धारक द्वारा अर्जित आय का रिसर्च में पुनर्निवेश किया जाये, तो नये उत्पादों का आविष्कार हो सकता है. अध्ययनों के मुताबिक पेटेंट कानून का रिसर्च पर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ रहा है. ब्रिटिश सरकार द्वारा बौद्घिक संपदा कानून पर एक आयोग गठित किया गया था. उसने 2002 में सौंपी रपट में कहा कि लंबी अवधि तक पेटेंट संरक्षण देने की तुलना में कम समय तक संरक्षण देना लाभप्रद है.
चीन में डब्ल्यूटीओ के अनुरूप पेटेंट व्यवस्था 1993 में कर दी गयी थी, जबकि भारत में यह 2005 में लागू हुई. पाया गया कि चीन में दवा की उपलब्धता भारत की तुलना में कम थी. यानी पेटेंट संरक्षण का चीन की दवा उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा. यानी पेटेंट धारक द्वारा अर्जित धन से रिसर्च को कुछ बढ़ावा अवश्य मिल रहा है, परंतु इससे जादा हानि अन्य द्वारा रिसर्च न करने से हो रही है. पेटेंट कानून से बड़ी कंपनियों को अपने माल को महंगा बेचने मात्र का अवसर मिल रहा है.
भारत तथा दूसरे विकासशील देशों के विकास के लिए खुला व्यापार लाभप्रद है, जबकि बड़ी कंपनियों के मुनाफे के लिए पेटेंट लाभप्रद है. हमें चीन की तरह बड़ी संख्या में पेटेंट पंजीकृत कराने चाहिए तथा इसमें जितना संभव हो सके ढील देनी चाहिए. मोदीजी को पेटेंट कानून को डब्ल्यूटीओ के बाहर करने की मुहिम छेड़नी चाहिए, जैसा सख्त रुख उन्होंने खाद्य सब्सिडी पर अपनाया है. इस कार्य के लिए विकासशील देशों के 500 करोड़ लोग मोदी सरकार को धन्यवाद देंगे.