दो वर्ष बाद रांची में ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल (टीएसी) की बैठक हुई. उसे सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा सीएनटी ऐक्ट में संशोधन का लगा. वर्ष 1908 में बने सीएनटी एक्ट की धारा 46 के 1(बी)(ए) में सरकार संशोधन करना चाहती है.
सरकार चाहती है कि आदिवासियों की जमीन आदिवासियों के बीच खरीद-बिक्री के लिए थाना की बाध्यता समाप्त की जाये. आखिर इससे किसको फायदा होना है? यह प्रस्ताव किसके लिए है? हकीकत यह है कि इससे एक खास आदिवासी तबके को फायदा होना है. झारखंड में आदिवासी मंत्रियों, पूर्व मंत्रियों, नेताओं अफसरों ने मनमाने ढंग से, थाना क्षेत्र की बाध्यता को ठेंगा दिखा कर, आदिवासियों की जमीन ली है. अब वही तबका सीएनटी ऐक्ट में छेद करके इसे कानूनी जामा पहनाने में लगा है.
सरकार यदि चाहती है कि आदिवासियों का जल, जंगल और जमीन पर अधिकार कायम हो, तो सीएनटी के प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने की जरूरत है. तमाम कोशिश और हो-हल्ला के बावजूद आज तक आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री में मुआवजे का प्रावधान खत्म क्यों नहीं हुआ? एसएआर कोर्ट में बैठनेवाले अफसरों ने करोड़ों कमाये. आदिवासी जमीन बेचनेवाले दलाल-माफिया की फौज खड़ी हो गयी. एसएआर कोर्ट के सहारे गरीब आदिवासियों को उनकी जमीन का औने-पौने दाम मिला.
सच तो यह है कि जमीन आदिवासियों के लिए अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न है. आदिवासियों को उनकी जमीन का व्यावसायिक लाभ नहीं मिल रहा. शिक्षा, आवास, रोजगार और व्यापार के लिए अपनी जमीन पर कर्ज नहीं ले पा रहे. पर टीएसी के एजेंडे में यह सब ऊपर नहीं था. आदिवासी जमीन की लूट पर कमेटियां बनीं. विधानसभा में बहस हुई, लेकिन समस्या का समाधान नहीं निकला. पांचवीं अनुसूची के तहत टीएसी को संविधान ने अधिकार दिये हैं. राज्य में टीएसी की भूमिका कारगर होती, शासन-प्रशासन में हस्तक्षेप होता, तो आदिवासियों के साथ नाइंसाफी नहीं होती. ट्राइबल सब प्लान का पैसा आदिवासियों के विकास में खर्च होता. योजनाएं धरातल पर उतरतीं, आदिवासियों के हालात बदलते. लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी संवैधानिक संस्था भी राजनीतिक दबाव और दावं-पेच में निर्णय लेती है.