राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के 2010 से 2013 के बीच के आंकड़े बताते हैं कि देश में फरजी मुठभेड़ में मौत की शिकायतों में वृद्धि हुई है. उपर्युक्त चार सालों में देश में फरजी मुठभेड़ की 555 शिकायतें दर्ज हुईं, जिनमें सबसे ज्यादा शिकायतें नक्सल-प्रभावित या अलगाववाद की समस्या वाले राज्यों से आयीं.
फरजी मुठभेड़ विधिसंगत न्याय की धारणा के उलट है. इस लिहाज से सुप्रीम कोर्ट द्वारा फरजी मुठभेड़ पर रोक लगाने के लिए जारी दिशा-निर्देश अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि मुठभेड़ से जुड़ी हर जानकारी को दस्तावेजी रूप दिया जाये और जबतक इसकी निष्पक्ष जांच नहीं हो जाती, मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मी को न तो कोई पदक दिया जाये न ही पदोन्नति.
सीआरपीसी की धारा 46 अनुमति देती है कि किसी आरोपित को गिरफ्त में लेने के लिए पुलिसकर्मी जरूरी सभी साधनों का प्रयोग कर सकते हैं. पर, क्या जरूरी सभी साधनों में आरोपित पर गोली चलाना या उसे मार गिराना शामिल है? सीआरपीसी की धारा 46 के अनुसार अगर आरोपित का अपराध फांसी या उम्रकैद की सजा के संगत न हो, तो उसे गिरफ्तार करने के क्रम में ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता, जिससे उसकी मौत हो जाये.
हालांकि, अगर आरोपित गिरफ्तारी से बचने के लिए पुलिस पर हमलावर हो उठे, तब पुलिस गोली चला सकती है, क्योंकि कानून हर नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार देता है और यह अधिकार पुलिसकर्मी को भी प्राप्त है. मानवाधिकार समूहों का कहना है कि फरजी मुठभेड़ को असली साबित करने के लिए पुलिस आत्मरक्षा की दलील का इस्तेमाल करती है या फिर मार गिराये गये व्यक्ति को फांसी या उम्रकैद की सजा का हकदार साबित करने के लिए उसे आतंकी या नक्सली करार देती है.
एक ऐसे समय में जब बहुत से कुख्यात अपराधी छुट्टा घूम रहे हैं, जबकि कुछ लोग अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण उग्रवादी या नक्सली करार देकर पुलिस मुठभेड़ में मारे जा रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों पर अमल से पुलिस पर लोगों का भरोसा बहाल किया जा सकेगा. हालांकि अपराध नियंत्रण के प्रति पुलिसकर्मियों का मनोबल बनाये रखने के लिए उसके साहसिक कार्यों को प्रोत्साहित करनेवाले विशेष उपाय भी जरूरी हैं.