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खौफनाक दरिंदगी की पीड़िता निर्भया को आखिरकार इंसाफ मिला है. इससे समूचे देश ने राहत की सांस ली है. भले ही इसमें सात सालों से ज्यादा का वक्त लग गया, पर उस घटना के बाद बलात्कार व अन्य अपराधों को रोकने तथा अपराधियों को सजा देने के बाबत कई उपाय हुए हैं और कानून बने […]

खौफनाक दरिंदगी की पीड़िता निर्भया को आखिरकार इंसाफ मिला है. इससे समूचे देश ने राहत की सांस ली है. भले ही इसमें सात सालों से ज्यादा का वक्त लग गया, पर उस घटना के बाद बलात्कार व अन्य अपराधों को रोकने तथा अपराधियों को सजा देने के बाबत कई उपाय हुए हैं और कानून बने हैं.
ऐसी पहलों का लक्ष्य यही है कि फिर किसी निर्भया के साथ ऐसी हैवानियत न हो. लेकिन यह बेहद चिंता की बात है कि महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और अन्य अपराधों की संख्या में न तो कमी आ रही है और न ही लंबित मामलों की सुनवाई अपेक्षित गति से हो रही है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 2018 में थॉमसन रायटर फाउंडेशन के एक वैश्विक सर्वे में भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश माना गया था. ताजा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2017 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लगभग 3.60 लाख मामले दर्ज किये गये थे.
हमारे देश में 15 से 49 साल उम्र की 30 फीसदी महिलाओं को शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ता है. वर्ष 2017 में बलात्कार के लगभग 1.28 लाख मामले लंबित थे और केवल 18,300 मामलों का ही निपटारा हुआ था. इसके बावजूद सजा देने की दर करीब 32 फीसदी ही रही थी. वर्ष 2019 में बच्चों के विरुद्ध बलात्कार के 1.5 लाख से अधिक मामले लंबित थे. ऐसे मामलों के निपटारे की दर महज नौ फीसदी है.
किसी भी अन्य अपराध की तुलना में बलात्कार के लंबित मामलों की संख्या अधिक है. देश में फास्ट-ट्रैक अदालतों की मंजूर संख्या 18 सौ है, लेकिन इनमें से सिर्फ 700 ही चल रहे हैं. सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा तथा पीड़ितों की मदद के लिए 2013 में निर्भया कोष बनाया गया था. इसके तहत केंद्र सरकार द्वारा आवंटित धन का बहुत कम हिस्सा ही राज्य सरकारें खर्च कर पाती हैं.
यह कोताही और लापरवाही उस देश में हो रही है, जिसकी राजधानी दिल्ली में ही 2018 में हर दिन पांच महिलाओं के साथ बलात्कार और आठ के साथ अभद्रता की घटनाएं दर्ज हुई थीं. यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसे अपराधों के अधिकतर आरोपित पीड़िता के परिवारजनों या परिचितों में होते हैं. बड़ी संख्या में अपराधों की शिकायत भी नहीं होती. ऐसे में महिलाओं के विरुद्ध अपराधों की वास्तविक संख्या उपलब्ध आंकड़ों से कई गुना अधिक हो सकती है. इन शिकायतों के प्रति पुलिस का रवैया अक्सर असंवेदनशील होता है. इस कारण महिलाओं में पुलिस पर भरोसा भी कम होता है.
अदालतों में जजों व कर्मचारियों तथा पुलिसकर्मियों की संख्या कम होने से भी निगरानी और जांच में बाधा आती है. ऐसे में प्रशासनिक सुधारों के साथ समाज में जागरूकता और संवेदना बढ़ाने की कवायद पर भी जोर देना जरूरी है, क्योंकि ऐसे अपराधों का एक बड़ा कारण महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह है. आधी आबादी को असुरक्षित रख हमारा देश विकास की राह पर आगे नहीं बढ़ सकता है.

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