बीते दिनों जारी आर्थिक सर्वेक्षण से एक बात साफ हो गयी है कि भले ही हम काफी तरक्की कर चुके हों, पर लैंगिक भेदभाव में हम अब भी आगे हैं. 1961 में प्रति हजार लड़कों पर 976 लड़कियां थीं और साल 2011 में यह आंकड़ा 911 हो गया.
मतलब लड़का और लड़की की संख्या का अंतर बड़ा होता जा रहा है. जाहिर है, इससे समस्याएं भी बढ़ेंगी. सबसे पहले तो विवाह के लिए लड़कियां मिलनी मुश्किल हो जायेंगी. यह स्थिति कई क्षेत्रों में पहले से है. शिशु लिंग अनुपात में आयी गिरावट बताती है कि हमारा समाज महिलाओं और लड़कियों का कितना सम्मान करता है और साथ में यह भी बताता है कि हमने जो तमाम तरह की तरक्की की है, उसमें महिलाएं और बच्चियों का दरजा किस तरह खराब होता जा रहा है. अब भी वक्त है इस भेदभाव को मिटायें, वरना परिणाम बुरे होंगे.
रामेश्वर प्रसाद, थड़पकना, रांची