पीयूष पांडे
वरिष्ठ व्यंग्यकार
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चुनावी राजनीति में चुनाव नेता लड़ता है और जीतकर मलाई खाता है. लेकिन भुगतता वोटर है. रिसर्च में भी यही होता है. शोधकर्ता कभी उपयोगी तो कभी अनुपयाेगी विषय पर रिसर्च करता है. बाद में रिसर्च के निष्कर्षों को लागू किये जाने की मांग करता है. उपयोगी शोध है तो ठीक, लेकिन अनुपयोगी है, तो जनता बेवजह मुसीबत में फंस जाती है.
एक शोध से ब्रिटेन के लोग और कंपनियां परेशान हैं. दरअसल, लंदन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने शोध के बाद सरकार को प्रस्ताव दिया है कि खाने-पीने की चीजों के पैकेट पर न केवल कैलोरी चार्ट लगाया जाये, बल्कि लोगों को बताया भी जाये कि क्या करने से अर्जित कैलोरी खर्च होगी.
प्रस्ताव लागू हुआ तो चॉकलेट के पैकेट पर लिखा होगा- 229 कैलोरी, 22 मिनट दौड़ें. चिप्स के पैकेट पर लिखा होगा-131 कैलोरी, 31 मिनट चलें. सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल पर लिखा जायेगा-138 कैलोरी, 26 मिनट चलें. अब लोग परेशान हैं कि खाने से पहले कैलोरी खर्च करने के तरीके देखेंगे, तो निवाला हलक के नीचे कैसे उतरेगा? यदि आप कोई आइटम खाने के लिए मुंह खोलें और पैकेट पर दिखे कि इसे हजम करने के लिए सौ दंड बैठक लगानी होंगी, तो क्या आप उसको खा पायेंगे?
उधर कंपनियां इसलिए परेशान हैं कि कैलोरी के चक्कर में लोग कहीं उत्पाद खरीदने में कमी ना कर दें? भारत के अखबारों में यह रिपोर्ट छपने के बाद कई भारतीय कंपनियां परेशान हैं कि कहीं ऐसा फालतू का आइडिया यहां ना लागू हो जाये. यूं तो हिंदुस्तान में ऐसे आइडिया लागू होने में तकनीकी दिक्कते हैं. क्योंकि कोई माई का लाल वैज्ञानिक नहीं बता सकता कि छन्नू हलवाई की कचौरी से 100 कैलोरी मिलती है, तो मुन्नू हलवाई की कचौरी से सिर्फ 75 कैलोरी क्यों मिल रही है.
हमारे यहां ऐसे भी बाजीगर दूध बेचनेवाले हैं, जिनके दूध की कैलोरी नापी जाये, तो शायद माइनस में निकल आये. वैज्ञानिक उनके दूध से दूध का दूध और पानी का पानी करेंगे, तो शायद गश खाकर गिर पड़ें कि एक लीटर दूध में 99 फीसदी सिर्फ पानी है, लेकिन बंदे उसे दूध मानकर न केवल पी रहे हैं, बल्कि खुद को फिट महसूस भी करते हैं. लेकिन भूमंडलीकरण का जमाना है. एक्सपोर्ट-इंपोर्ट का बोलबाला है. एक हाथ दे, दूजे हाथ ले की फिलॉसफी चल रही है. फिट रहो का नारा भी बुलंद है.
ऐसे में कहीं लंदन यूनिवर्सिटी का शोध उड़ते-उड़ाते यहां लागू हो गया, तो बैठे-बिठाये मुश्किल हो जायेगी. यूं कैलोरी देखकर खाना हमारी परंपरा में नहीं है, लेकिन कुछ कंपनियां इसलिए परेशान हैं, क्योंकि यहां रहते हुए जो लोग खुद को अमेरिकी-ब्रिटिश-कनाडाई नागरिक ही मानते हैं, वे रिसर्च से प्रभावित हो सकते हैं. कुछ लोग जिम में इत्ता पैसा खर्च करते हैं कि उन्हें पैकेट पर कैलोरी देखना कर्तव्य मालूम पड़ता है.
बाकी हिंदुस्तानी ऐसी रिसर्च को ठेंगे पर रखते हैं. यहां कचौरी, जलेबी, बेड़ई, हलवा, लिट्टी-चोखा, गुलाब जामुन, परांठे जैसे आइटम तमाम रिसर्च पर भारी हैं.