न लके से मुहैया होनेवाले पानी या भूजल को पीने लायक बनाने के लिए घरों, कार्यालयों एवं होटलों आदि में रिवर्स ऑस्मॉसिस (आरओ) तकनीक का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. इस तकनीक से शोधित पानी को बोतलबंद कर बेचा भी जाता है, जो कि खनिजयुक्त पानी से सस्ता होता है.
लेकिन इस तकनीक की एक बड़ी कमी यह है कि शोधन की प्रक्रिया में अधिकांश पानी बर्बाद हो जाता है. ऐसे दौर पर में जब पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है तथा भूजल का स्तर गिरता जा रहा है, ऐसी बर्बादी पर रोक लगाना तात्कालिक जरूरत बन चुकी है. इसी आधार पर मई में राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने उन क्षेत्रों में आरओ तकनीक पर रोक लगाने का आदेश दिया था, जहां पानी में घुले हुए ठोस कणों की मात्रा प्रति लीटर 500 मिलीग्राम से कम है.
पिछले दिनों इस आदेश के विरुद्ध आरओ मशीनें बनानेवाली कंपनियों की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस मसले पर निर्णय लेने से पहले इन कंपनियों का पक्ष सुनने को कहा है. अदालत ने अधिकरण के आदेश पर रोक लगाने से भी मना कर दिया है. अधिकरण ने अपने निर्णय में कंपनियों से कहा था कि वे यह सुनिश्चित करें कि शोधन के दौरान कम-से-कम 60 फीसदी पानी पीने लायक हो और 40 फीसदी से अधिक बर्बाद न हो. निर्देश में यह भी है कि कंपनियां मशीनों की क्षमता में बढ़ोतरी कर सीमा को 75 फीसदी तक ले जायेंगे.
इस निर्देश के साथ संबंधित चर्चा बेहद अहम मोड़ पर हो रही है, जब सरकार पानी की संरक्षा के साथ उसके संरक्षण और शोधन के लिए व्यापक कार्यक्रम और निवेश की ओर अग्रसर है. जलाशयों के संकुचन, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान की वजह से पानी की उपलब्धता को लेकर चिंताएं तो गंभीर हुई ही हैं, साथ ही बाढ़, सूखे और लू जैसी स्थितियों की बारंबारता भी बढ़ती जा रही है.
ऐसे में अगर आरओ से संबंधित भारतीय मानक ब्यूरो के 2015 के नियमन को ही लागू रखा जायेगा, तो पानी के लिए हाहाकार मच सकता है. उस नियमन के तहत आरओ मशीनों से 20 फीसदी पानी के उपयोग लायक बनाने का मानदंड रखा गया है यानी 80 फीसदी पानी को बर्बाद करने की एक प्रकार से छूट मिली हुई है. इसी को राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने बदलने का निर्देश दिया है. हाल ही में जारी हुई मानक ब्यूरो की रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली और अधिकतर राज्यों की राजधानियों में आपूर्ति का पानी गुणवत्ता के मानकों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतरा है.
दुर्भाग्य से न्यायालयों को स्वयंसेवी संस्थाओं और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के प्रयासों से हस्तक्षेप करना पड़ रहा है, जबकि इस संबंध में सरकारी एजेंसियों को सक्रिय रहना चाहिए. विदेशों में शोध हो चुके हैं कि आरओ प्रक्रिया में अनेक आवश्यक खनिज पदार्थ पानी से निकल जाते हैं, जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. सरकारों को भी इन शोधों का संज्ञान लेना चाहिए.