यूपीएससी की परीक्षा में सीसैट का उठा बवंडर थमने का नाम नहीं ले रहा है. सिविल सेवा अभ्यर्थियों का प्रदर्शन देश भर में जारी है. विडंबना देखिए कि अब तो इस मुद्दे पर आत्मदाह तक की कोशिश होने लगी है.सवाल उठता है कि भारत की सबसे प्रतिष्ठित सेवा में ऐसी नौबत ही क्यों आयी? क्या वास्तव में परिवर्तित पाठयक्रम का प्रारूप समाज के अभिजन वर्ग के लिए ही निर्धारित किया गया है? लोक-समझ तथा प्रतिनिधित्वपूर्ण लोकतंत्र से परे है, यह पाठ्यक्रम? क्या ग्लोबल होते भारत को अंगरेजी के ज्ञान की जरूरत नहीं है?
क्या सचमुच यह संवैधानिक संस्था परीक्षार्थियों की क्षमता का उचित परीक्षण कर पाने में असफल है? इस दलील पर कई सवाल उठ सकते हैं. लेकिन हकीकत के आईने में देखें तो स्पष्ट होता है कि यूपीएससी द्वारा 2011 से सीसैट लागू किये जाने के बाद से मानविकी एवं गैर-अंगरेजी भाषी समूह के अभ्यर्थी पिछड़ने लगे.
विदित हो कि इससे पूर्व में हुए आंदोलन के कारण यूपीएससी को विवश होकर अभ्यर्थियों की आयु एवं अवसर को बढ़ाना पड़ा. इससे अभ्यर्थियों की तकनीकी तैयारी में शिथिलता स्वाभाविक तौर पर देखने को मिली. माना जाता है कि सिविल सेवा परीक्षा देश का इस्पाती चौखट है.
इसे लेकर कोई भी विवाद चिंताजनक है. क्योंकि इससे अखिल भारतीय सेवा की साख जुड़ी है. अत: सरकार को इस मसले पर गंभीरता एवं संवेदनशीलता दिखाते हुए संतोषजनक समाधान निकालना चाहिए. अभ्यर्थियों को भी सीसैट को भेद-भाव का नया हथियार मानने के बजाय अपनी बौद्घिक क्षमता एवं तैयारी के दायरा को व्यापक बनाना चाहिए क्योंकि अगर सिविल सेवा/सीसैट अगर चुनौतियों के रूप में है तो संभावनाएं भी इसी में मौजूद हैं.
हर्षवर्धन कुमार, ई-मेल से