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छड़ी में जादू नहीं है..

।। चंचल ।। सामाजिक कार्यकर्ता नैतिकता के पोंगापंथी आडंबर से बड़ा कोई कुकर्मी माध्यम नहीं है, जिस पर जनता को ठगा जाये. जहां हम तर्क से हार जाते हैं, नैतिकता ओढ़ लेते हैं.अब सावन भी धोखा दे रहा है. पहले सावन आता रहा तो बूंद की झड़ी लग जाती रही. सांझ कब उतरी, पता ही […]

।। चंचल ।।

सामाजिक कार्यकर्ता

नैतिकता के पोंगापंथी आडंबर से बड़ा कोई कुकर्मी माध्यम नहीं है, जिस पर जनता को ठगा जाये. जहां हम तर्क से हार जाते हैं, नैतिकता ओढ़ लेते हैं.अब सावन भी धोखा दे रहा है. पहले सावन आता रहा तो बूंद की झड़ी लग जाती रही. सांझ कब उतरी, पता ही नहीं चलता रहा. यह उस जमाने की बात है, जब गांव में कभी किसी बड़मनई के पास घड़ी होती रही.

तब चकवड़ के झाड़ हुआ करते थे, जिनकी पत्तियों को देख कर दोपहर-सांझ का पता चलता रहा. उसी हिसाब से चूल्हा जलता रहा. बोरसी की राखी में आग रहती थी. एक दिन माचिस आ गयी. तिवारीबो उसे अंगारडिबिया बोलती रहीं. आज अंगार घर-घर है, लेकिन चूल्हे के लिए नहीं, घर जलाने के लिए..

किसका घर जलाने की बात हो रही है कयूम मियां? लाल्साहेब को अचानक अपने दरवाजे पर खड़ा देख कयूम मियां चौंके-जमाने की बात कर रहा हूं. कहां से चले थे, कहां निकल पड़े हैं. अपना तो कुछ है ही नहीं.

कजरी तक आपन ना बची. हिरौती, जंतुला, लछ्मीना, गफूरन की अम्मा जब एक सुर से उठें, तो पूछो मत. जितना ऊंचा झूले की पेंग, उससे भी ऊंची कजरी की लय..हमके सावन में झुलनी गढ़ाय द पिया, अबकी माने ल पिया ना.. अब कहीं सुनने को मिलता है? लाल्साहेब बोले- चलो मियां चाय पिया जाये. सावन में ऐसी चिलचिलाती धूप?

मद्दू पत्रकार हैं. विषयांतर कोई इनसे सीखे, कयूम मियां! यह जमाना ही ऐसा है. जहां जो नहीं होना चाहिए, वहां वही हो रहा है.

जिन्हें जेल में होना चाहिए, वो निजाम की कुंजी लिये मुल्क के मुस्तकबिल का फैसला कर रहे हैं. जिन्हें पंचाईत की समझ है, वो हाशिये पे डाल दिये गये हैं. कबीर ने इसे बहुत पहले ही भांप लिया था. चलती को गाड़ी कहे, मछली चढ़ गे रूख.. मद्दू की बात उमर दरजी के पल्ले नहीं पड़ी- कुछ हिंदी में बोला जाये, जनता भी समझे . मद्दू सूफियाने अंदाज में बोले- जनता..?

लखन कहार पूछे- इ इजराइल के है भाई? सकीना के मामू, जो दाहा औ ताजिये के जुलूस में लकड़ी खेलता रहा? बड़ा मजाकिया है सरवा, इत्ता बड़ा हो गया कि ओकरा नाम अखबार-टीवी पे आवे लगा? चिखुरी ने घुड़की दी- बुड़बक हो का. इजराइल एक मुल्क है. अंधी राष्ट्रीयता कूट-कूट कर उसमें भर दी गयी है.

वहां हर नागरिक को सैनिक बना कर देश को बचाने की जिम्मेवारी दी जाती है. इसे राष्ट्रभक्ति कहते हैं. अपने मुल्क में भी लड़ाकू बनाने के लिए इन्हें लाठी की ट्रेनिंग दी गयी, अब बंदूक भी चलाना सिखाया जा रहा है. ये लोग खूब तारीफ किये इजराइल का, लेकिन जब दुनिया के सामने बोलना पड़ा, तो उसके खिलाफ बोले.

कीन उपाधिया कुछ बोलना चाह रहे थे, लेकिन नवल ने बीच में ही लपक लिया- गुरु, दू महीना हो गया. न महंगाई रुकी, न भ्रष्टाचार खतम भवा, गोली-बारी रोज चालू.. अब कीन से नहीं रहा गया- सरकार के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि उसे घुमाया औ सब दुरुस्त!

लाल्साहेब हत्थे से उखड़ गये- अबे कीन के बच्‍चों! पूरे चुनाव तक बक्बकाते रहे, यह हो जायेगा वह हो जायेगा. अब छड़ी खोजने लगे? नवल को मौका मिल गया. कीन! छड़ी तो मिल जायेगी, लेकिन यह चेक करना पड़ेगा कि उसमें जादू है कि नहीं. ठहाका उठा. कीन खिसिया गये- कहां तक बचायें. ससुरे झूठ बोल कर अपने तो गद्दी पे जा बैठे, चूतिया बने हम घूम रहे हैं. आसरे! चाय दो भाई, लेकिन अब ना फसेंगे सच्ची..

फंसो चाहे ना फंसो, लेकिन हमें तो फंसा गये. कह कर लखन कहार ने खैनी मलनी शुरू कर दी. नवल ने चुटकी ली- का बात है लखन भाई, आप तो सुपारी खाते रहे अब सुरती पर? आसरे चाय देते-देते सुपारी का रेट बताने लगा. दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है. और शराब की कीमत तो देखो. मद्दू पत्रकार के मर्म को चोट लगी- शराब? सबसे दर्दनाक हादसा हुआ है पियक्कड़ों के साथ. सरकार एक साथ दो काम करती है. शराब की सरकारी दूकान भी चलायेगी और मद्यनिषेध महकमा भी बनायेगी. दोनों एक ही सरकार के अधीन भी रहेंगे, अलग-अलग सुर में बोलेंगे भी. इस बाबत कभी शराबियों ने कोई प्रदर्शन नहीं किया.

चिखुरी मुस्कुराये- नैतिकता के पोंगापंथी आडंबर से बड़ा कोई कुकर्मी माध्यम नहीं है, जिस पर जनता को ठगा जाये. जहां हम तर्क से हार जाते हैं, नैतिकता ओढ़ लेते हैं. चिखुरी ने बात को अपनी तरफ घुमाया. महंगाई से बचने का एक ही तरीका है. हर उत्पाद पर लगनेवाली लागत-बिक्री के बीच का मुनाफा तय किया जाये. खेत-कारखाने के उत्पाद के बीच के रिश्ते को तय किया जाये. बिचौलिये अपने आप हेरा जायेंगे. लेकिन इस सरकार से यह उम्मीद मत करो. यह कॉरपोरेट घरानों के लय पर नाचेगी, गायेगी और जनता को खुल्ला छोड़ देगी. जनता नाचे, गाये या चीखे.. पांच साल तो कट ही जायेंगे. कहो फलाने!

एक डगर और है, पर उस पर किसी के चलने की कूबत ही नहीं. वह क्या है? वह गांधी का रास्ता है- सिविल नाफरमानी. वह लोहिया का रास्ता है- जिंदा कौम पांच साल इंतजार नहीं करती. लेकिन ये दोनों कहां हैं? दिक्कत तो यही है. देखते हैं.. कल को किसने जाना है..?

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