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तुम बरसो या सावन बरसे..

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।। वरिष्ठ साहित्यकार बादलों की तरह ही आजीवन घूमने-भटकनेवाले कवि नागार्जुन ने छात्रावस्‍था में ही संस्कृत महाकवियों की तरह अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को तिक्त मधुर विस-तंतु खोजते हंसों की भांति घिरते देखा था. तमाम आशंकाओं को दूर करते हुए सावन मास के पहले दिन ही आकाश में […]

।। डॉ बुद्धिनाथ मिश्र ।।

वरिष्ठ साहित्यकार

बादलों की तरह ही आजीवन घूमने-भटकनेवाले कवि नागार्जुन ने छात्रावस्‍था में ही संस्कृत महाकवियों की तरह अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को तिक्त मधुर विस-तंतु खोजते हंसों की भांति घिरते देखा था.

तमाम आशंकाओं को दूर करते हुए सावन मास के पहले दिन ही आकाश में काले-काले मेघ उमड़ने लगे, बिजलियां चमकने लगीं, हरे-भरे मक्के के खेतों में मचान बन गये, गांव की बिटियाओं ने पेड़ों की डालों पर झूले डाल दिये, मल्हार राग वातावरण को आद्र्र करने लगा और होठों पर कविता की पंक्ति फूट पड़ी :

प्यास हरे, कोई घन बरसे/ तुम बरसो या सावन बरसे//

वैसे तो पावस की भूमिका एक मास पहले से ही बंधने लगती है, कालिदास ने ‘आषाढस्य प्रथम दिवसे’ से मेघदूत का श्रीगणोश किया भी है, मगर पावस ऋतु का विधिवत् आरंभ सावन से होता है. सावन के पहले दिन से ही वर्षा ऋतु भी शुरू होती है और खेतिहरों का वर्ष भी. भारतीय कृषि-जीवन का समय-चक्र वर्षा (मॉनसून) पर निर्भर है, इसलिए कई पंचांग-निर्माता वर्ष का पहला मास श्रावण ही मानते हैं.

श्रावण मास भगवान शिव का मास है और सोमवार शिव का प्रिय दिन, इसलिए देश के सभी छोटे-बड़े तीर्थो में सावन के चारों सोमवारों को भक्तों और कांवड़ियों की बड़ी गहमागहमी रहती है. यहां तक कि उस दिन आकाश में विचरते बादल भी सड़कों पर भागते देवघर के ‘डाक कांवरिया’ ही लगते हैं. श्रावण की पूर्णिमा मूलत: ‘श्रावणी’ पर्व है, जिसमें प्रात:काल शास्त्रज्ञ ब्राह्म ण नदी या जलाशय में स्नान कर अपने पूर्वजों, देवताओं, ऋषि-मुनियों, नदी-पर्वतों का स्मरण करते हैं और पिछले वर्ष के ज्ञात-अज्ञात पापों के लिए विधिवत् प्रायश्चित्त करते हैं.

बाजार ने अब इसे रक्षाबंधन त्योहार के रूप में प्रचारित कर दिया है, लेकिन हमारे बचपन तक पुरोहित अपने यजमानों को राखी बांधते थे. बदले में उन्हें तांबे के एक पैसा से लेकर चार आने तक मिलते थे.

नगरों में वर्षा केवल टीवी चैनलों पर सुखद है, वरना जिसे घुटने भर गटर के गंदे पानी में चल कर ऑफिस-दूकान या स्कूल-कॉलेज जाना पड़ता है, उसके लिए तो वर्षा ऋतु दंड ही है. देहातों में भी करइल मिट्टीवाली नंगी पगडंडियों पर फिसलने, छप्पर के चूने या जलावन भींग जाने से चूल्हा बंद होने का डर रहता है, मगर देहात में वर्षा ऋतु तन-मन को भिंगो देती है, इसमें कोई संदेह नहीं. महाकवि विद्यापति की राधा सावन मास में टूट कर बरसते घन की अनदेखी कर प्रियतम से मिलने जाना चाहती है, मगर अंधेरी रात में पंथ नहीं सूझता और कुसमय बिजली चमकने से पहचाने जाने का भी डर सता रहा है:

साओन मास बरिस घन वारि/ पंथ न सूझए निसि अंधिआरि//

चउदिस देखिअ बीजुरि रेह/ हे सखि! कामिनि जिवन संदेह//

विश्व के सबसे बड़े कवि कालिदास ने पावस की प्रतिष्ठा में जो सबसे बड़ा गीतिकाव्य रचा है, वह है ‘मेघदूत’. इसके विरही यक्ष को न अपने तन-मन की सुध है, न जड़-चेतन का ज्ञान, इसलिए मेघ को संदेशवाहक बनाने के लिए उसके आगे गिड़गिड़ाता है और मुफ्त में चित्रकूट से अलकापुरी जाकर अपनी प्रिया को संदेश पहुंचाने के लिए उसकी खुशामद करते हुए कहता है कि संसार में पुष्कर और आवर्तक नामक दो प्रसिद्ध मेघों के उच्च वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है; तुम देवराज इंद्र के दूत हो और जैसा चाहो, रूप धर सकते हो; इसीलिए दुर्भाग्यवश अपनी प्रिया से इतना दूर स्थित मैं तुम्हारे आगे हाथ पसार रहा हूं, क्योंकि गुणी के आगे हाथ फैला कर खाली हाथ लौट आना किसी नीच से काम कराने की तुलना में अच्छा है.

बादलों की तरह ही आजीवन घूमने-भटकनेवाले कवि नागार्जुन नेछात्रावस्‍थामें ही संस्कृत महाकवियों की तरह अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को तिक्त मधुर विस-तंतु (मृणाल को तोड़ने पर निकलनेवाला पतला धागा) खोजते हंसों की भांति घिरते देखा था:

तुंग हिमाचल के कंधों पर/ छोटी-बड़ी कई झीलों के/ श्यामल शीतल अमल सलिल में/ समतल देशों से आ-आकर/ पावस की ऊमस से आकुल/ तिक्त मधुर विस-तंतु खोजते/ हंसों को तिरते देखा है..

गीतों के जादूगर गोपाल सिंह नेपाली ने क्षितिज पर उमड़ रहे श्यामल घन के खुले काले घुंघराले बालों पर गीत लिखा है, सावन की अभ्यर्थना में ‘सावन’ शीर्षक से सौ मुक्तक रचे हैं, लेकिन उनकी ये गीत-पंक्तियां कभी बिसरी नहीं जा सकतीं :

उस पार कहीं बिजली चमकी होगी/ जो झलक उठा है मेरा आंगन/

उन मेघों में जीवन उमड़ा होगा/ उन झोंकों में यौवन घुमड़ा होगा//

उन बूंदों में तूफान उठा होगा/ कुछ बनने का सामान जुटा होगा//

गीत विधा के कोमलतम भावों को उकेरनेवाले कवि भारत भूषण ग्रीष्म से विषण्ण हुई धरती पर शत-शत सलिल धार बरसाने के लिए मेघ से निवेदन करते हैं:

उमड़-घुमड़ कर गरज-गरज कर/ बरसो हे ज्योतिर्मय घन बरसो//

इधर खेत पर उधर रेत पर/ बरसो हे समदर्शी घन बरसो//

अक्सर शब्दों से अठखेलियां करते रहनेवाले विशिष्ट कवि ‘अज्ञेय’ का छंदमुक्त मानस भी पावस की आगमनी में छंदित होकर गा उठता है:

ओ पिया, पानी बरसा/ घास हरी हुलसानी/ मानिक के झूमर-सी/ झूमी मधु-मालती/ झर पड़े जीते पीत अमलतास/ चातकी की वेदना बिरानी..

फीजी के वरिष्ठ भारतवंशी कवि कमला प्रसाद मिश्र मेघों को वायुयान से देख कर जो अनुभव करते हैं, वह भी अद्भुत है:

मैं मेघों के ऊपर उड़ता जाता हूं/ है वायुयान उड़ता मेघों के ऊपर/ मौसम खराब है तेज हवा का डर/ रवि की किरणों मेघों पर नाच रही हैं/ यह तीव्र वेग से उड़ता नभ के पथ पर..

अंत में प्रस्तुत है बादल का एक अद्भुत चित्र, जिसे हिटलर के यातना शिविर में मारे गये हंगरी के युवा कैदी मिक्लोश राद्नोती ने अपने नोटबुक में छिपा कर लिखी कविता में उकेरा है. यह नोटबुक बरसों बाद कब्र खोदने पर उसके कंकाल के साथ मिली थी. कविता है:

भेड़ चरानेवाली छोटी लड़की/ झील में उतर कर/ पानी को थरथराती है/ और थरथराती हुई भेड़ें/ पानी में इकट्ठा होती हुई/ झुक कर बादलों से पानी पीती है..

भावार्थ यह है कि भेड़ चरानेवाली एक छोटी लड़की झील के पानी में उतरती है, जिससे पानी थरथराता है. उस कांपते पानी में भेड़ों की परछाई भी थरथराती दिखती है. आसमान में उड़ते बादलों की परछाई झील में पड़ रही है. ऐसा लगता है, जैसे भेड़ें पानी पर तैरते बादलों से सीधे पानी पी रही हैं!

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