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ऑनलाइन संसार तक सिमटी संवेदना

।। अजय पांडेय ।। प्रभात खबर, गया उस दिन मंगलवार था. अच्छे से याद है, क्योंकि मैं साप्ताहिक अवकाश पर था. सुबह उठते-उठते 11 बज गये थे. यानी आधी छुट्टी खत्म. बाकी बचे आधे दिन में हफ्ते भर का बकाया काम. शाम को थोड़ा सा वक्त मिला, तो घुमक्कड़ प्रवृत्ति ने बाहर निकलने पर विवश […]

।। अजय पांडेय ।।

प्रभात खबर, गया

उस दिन मंगलवार था. अच्छे से याद है, क्योंकि मैं साप्ताहिक अवकाश पर था. सुबह उठते-उठते 11 बज गये थे. यानी आधी छुट्टी खत्म. बाकी बचे आधे दिन में हफ्ते भर का बकाया काम. शाम को थोड़ा सा वक्त मिला, तो घुमक्कड़ प्रवृत्ति ने बाहर निकलने पर विवश कर दिया. यही कोई साढ़े पांच-छह बजे होंगे. घूमते-घूमते समाहरणालय की तरफ निकल गया.

यही एक जगह है, जो थोड़ी बहुत खुली है. नहीं तो बाकी जगह एक-दूसरे पर चढ़े घर और संकरी गलियां. उन गलियों में बिना लाइसेंस के घूमते कुत्ते व गाय. ऑफिस का समय खत्म होने के कारण अच्छा खासा ट्रैफिक था. मेरे साथ एक सहकर्मी भी थे. तभी, डीआइजी कार्यालय के पास थोड़ी भीड़ दिखी. वहां पहुंचा, तो देखा एक आदमी बेहोश पड़ा है. एक ‘सज्जन’ उसे चमड़े की चप्पल सुंघा रहे थे. पता चला कि उसे पिछले 10 मिनट से भिन्न-भिन्न कंपनियों और किस्म के चप्पल-जूते सुंघा कर होश में लाने की कोशिश की जा रही है. लेकिन उसकी स्थिति बिगड़ती ही जा रही थी. उसके कान से खून निकल रहा था.

सिर में भी चोट लगी थी. सब लोग ‘ये करो-वो करो’ कह तो रहे थे, लेकिन कर कोई नहीं रहा था. मैंने कई बार 100 नंबर डायल किया, लेकिन कोई रिस्पांस नहीं. 102 डायल किया, तो बार-बार ‘आपकी कॉल कतार में है’ यही जवाब मिला. इसके बाद मैंने अपने अखबार के क्राइम रिपोर्टर को फोन किया. तभी उसकी हालत और बिगड़ने लगी. भीड़ में शामिल कुछ लोग खिसकने भी लगे थे. पास के फुटपाथ दुकानदारों को यह कहते सुना कि इसे यहां से हटाओ, मर गया तो टेंशन हो जायेगा. कुछ तो यह भी कह रहे थे कि मदद के चक्कर में पुलिस का लफड़ा न हो जाये, इसलिए चलो यहां से. मैंने चौराहे पर खड़े ट्रैफिक पुलिसवाले को भी बताया. हालांकि, वह घटना से वाकिफ था. उसका कहना था कि यह मेरा काम नहीं है. यह सब देख मेरी संवेदना और उस आदमी की हिम्मत हार रही थी.

तभी उसके घरवाले पहुंच गये. उसे रिक्शे पर किसी तरह जेपीएन अस्पताल ले गये. वहां से उसे मेडिकल कॉलेज रेफर कर दिया गया. मुङो लोगों के संवेदनहीन होने पर ताज्जुब हो रहा था. आश्चर्य था उस सरकारी तंत्र को लेकर, जिसके बारे में सरकार बड़ी-बड़ी बातें करती है. पिछले दिनों यू-ट्यूब पर एक वीडियो था, जिसमें नायक हादसे में घायल होने का नाटक करता है. लोगों से मदद मांगता है, लेकिन उसकी मदद में कोई आगे नहीं आता. लोग बस तमाशा देखते हैं. आश्चर्य यह कि वीडियो रातोरात हिट हो जाता है. लाखों लोग इसे लाइक करते हैं. सोचिए, क्या हमारी संवेदना भी अब ऑनलाइन ही रहेगी? फेसबुक व यू-ट्यूब तक सिमट कर? सिर्फ वहां, जहां मात्र एक क्लिक कर हम अपने आपको संवेदनशील जता लेते हैं या अपनी संवेदनशीलता का ऑनलाइन पाखंड कर अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं?

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