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भारतीय भाषाओं पर नासमझी

योगेंद्र यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया yyopinion@gmail.com एक बार फिर नादान बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले उड़ा. एक बार फिर भारतीय भाषाओं के नासमझ झगड़े की आड़ में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व सुनिश्चित कर लिया. एक बार फिर भाषा के सवाल पर गंभीर राष्ट्रीय बहस शुरू होने से पहले ही बंद हो गयी. […]

योगेंद्र यादव

राष्ट्रीय अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

yyopinion@gmail.com

एक बार फिर नादान बिल्लियों की लड़ाई में बंदर रोटी ले उड़ा. एक बार फिर भारतीय भाषाओं के नासमझ झगड़े की आड़ में अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व सुनिश्चित कर लिया. एक बार फिर भाषा के सवाल पर गंभीर राष्ट्रीय बहस शुरू होने से पहले ही बंद हो गयी. एक बार फिर महारानी अंग्रेजी जोर से हंसी.

सब कुछ इतना आनन-फानन में हुआ कि ठीक से समझ आने से पहले ही मामला सुलटा भी दिया गया था. दिसंबर, 2018 में कस्तूरीरंगन समिति द्वारा तैयार नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप के अभी सार्वजनिक चर्चा के लिए जारी होते ही तमिलनाडु के द्रमुक के अध्यक्ष एमके स्टालिन ने हिंदी थोपने की साजिश के खिलाफ गंभीर आपत्ति दर्ज करवायी.

बहती गंगा में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम आदि ने भी हाथ धो लिया. सही मौका देख कर अंग्रेजी अखबारों ने अंग्रेजी भाषा के आधिपत्य पर इस रपट में की गयी टिप्पणियों की खिल्ली उड़ाते हुए कुछ संपादकीय भी जड़ दिये.

विपक्षियों की आलोचना और अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों की टिप्पणियों पर कान देना इस सरकार की फितरत नहीं है, लेकिन इस आलोचना पर बिजली की फुर्ती से काम हुआ. सरकार ने तत्काल स्पष्ट किया कि यह महज एक प्रारूप है और अभी सार्वजनिक चर्चा के लिए रखा गया है. सरकार ने 24 घंटे के भीतर वह हिस्सा भी हटा दिया. चाय के प्याले में उठा तूफान थम गया. स्टालिन ने अपनी पीठ ठोकी और सब कुछ यथावत चलता रहा.

दिक्कत सिर्फ इतनी थी कि वह बात, जो उनको बहुत नागवार गुजरी थी, उसका सारे अफसाने में कहीं जिक्र तक न था. राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में कहीं भी गैर-हिंदीभाषी राज्यों पर हिंदी थोपने का कोई प्रस्ताव है ही नहीं. इसमें न तो हिंदी को राष्ट्रभाषा कहने की भूल की गयी है, न इसके लिए कोई विशेष दर्जा मांगा गया है और न ही हिंदी की विशेष वकालत करते हुए एक वाक्य तक लिखा गया है.

दरअसल, यह दस्तावेज भारतीय संदर्भ में बहुभाषिकता की वकालत करता है. यह हमें दुनियाभर के शिक्षाविदों की इस समझदारी को याद दिलाता है कि बच्चा अपनी मां की भाषा या अपने घर में बोलचाल की भाषा में शिक्षा ग्रहण करें, तो सबसे बेहतर है. दस्तावेज यह भी याद दिलाता है कि तीन से आठ साल तक का बच्चा अनेक भाषाएं एक साथ मजे से सीख सकता है.

जिस घर में अंग्रेजी नहीं बोली जाती, उसके बच्चे को इंग्लिश मीडियम में शिक्षा दिलाना बच्चे की नैसर्गिक प्रतिभा को कुंद करता है. दस्तावेज अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं है, बल्कि कहता है कि सब बच्चों को अंग्रेजी सीखने की व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन एक भाषा के रूप में. अंग्रेजी के माध्यम से गणित, विज्ञान या समाज विज्ञान को पढ़ाने से बच्चे की समझ कम होगी. यह दस्तावेज भारतीय भाषाओं को ज्यादा मौका देने और उसमें उपलब्ध स्रोत को बेहतर बनाने की वकालत करता है.

बहुत समय बाद किसी सरकारी दस्तावेज ने शिक्षा में भाषा के सवाल पर गंभीरता और साफगोई से कुछ बातें कही हैं. नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस मसौदे को भाजपा समर्थन या भाजपा विरोध के चश्मे से देखना गलत होगा.

विरोधियों की आपत्ति इस प्रारूप में त्रिभाषा फार्मूले के जिक्र को लेकर है. इस फार्मूले का मतलब है कि स्कूल में गैर-हिंदीभाषी प्रांतों में बच्चे को प्रदेश की भाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेजी पढ़ायी जायेगी. हिंदीभाषी प्रदेश में उसे हिंदी और अंग्रेजी के साथ कोई एक भारतीय भाषा पढ़नी होगी. आपत्ति यह थी कि त्रिभाषा फार्मूले का परिणाम यह होगा कि गैर-हिंदी प्रदेशों में बच्चों को जबरन हिंदी पढ़नी पड़ेगी.

त्रिभाषा फार्मूला कम-से-कम 50 साल पुरानी सरकारी नीति है. यह साठ के दशक में भाषाई विवाद को सुलझाने के लिए राजनीतिक सहमति से बना था. साल 1968 की पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसे शामिल किया गया था.

व्यवहार में इसे बहुत कम राज्यों में लागू किया गया. तमिलनाडु ने इसे सीधे तौर पर खारिज कर दिया था. हिंदीभाषी प्रदेशों ने भी चोर दरवाजे निकाल लिये, ताकि अपने बच्चों को अन्य भाषाएं न सिखानी पड़े. संस्कृत शिक्षा के नाम पर औपचारिकता पूरी कर दी गयी. लेकिन कागज पर त्रिभाषा फार्मूला एक सरकारी नीति के रूप में बरकरार रहा.

अगर त्रिभाषा फार्मूला व्यवहार में लागू ही नहीं हो रहा, तो उस पर इतनी आपत्ति क्यों? पहली नजर में यह मामला सिर्फ कुछ तात्कालिक राजनीतिक पैंतरेबाजी का लग सकता है. भाजपा को तमिलनाडु में घुसने से रोकने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उस पर हिंदीवादी होने का लेबल चिपका दिया जाय. लेकिन खेल कुछ गहरा है.

नयी नीति से त्रिभाषा फार्मूले का जिक्र तक हटवा देना अंग्रेजी के वर्चस्व की औपचारिक स्वीकारोक्ति है. जब तक कागज पर यह फार्मूला रहेगा, तब तक वह हमें देश की बहुभाषी चरित्र की याद दिलायेगा. जिस देश में चारों तरफ इंग्लिश मीडियम स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग रहे हों, वहां त्रिभाषा फार्मूले की बात करना अपने आप में एक मजाक है. अब हमारा शासक वर्ग इस मजाक और अपराध बोध से मुक्ति चाहता है.

सवाल है कि हमारी संस्कृति में गौरव का झंडा उठानेवाली यह ‘मजबूत’ सरकार अपने ही दस्तावेज के पक्ष में खड़ी होकर भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे क्यों नहीं आ रही है?

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