अजय पांडेय
प्रभात खबर, गया
हर सफर में एक कहानी होती है. सुनी-सुनायी पंचलाइन है. अपने साथ कभी कहानी तो नहीं बनी, लेकिन जो कहानियां बनीं उनके नेपथ्य में रहने का सौभाग्य जरूर मिला. हर कहानी में कुछ भइयाजी टाइप पात्र होते हैं. ये स्वयंभू नेता जैसे होते हैं. कमजोर लोगों को धमकाना, सवारी वाहनों का किराया नहीं देना, किसी ठेले-खोमचे से उठा कर कुछ खा-पी लेना, बिना पैसे के किसी नाई की दुकान में मूंछ कटवा लेना या फिर नाक के बाल निकलवा लेना, मानो उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो.
वैसे उनके व्यक्तित्व के हिसाब से ऐसा ही काम उन्हें शोभा भी देता है. ऐसे ही एक ‘नेताजी’ मिले. बस से हाजीपुर से सीवान जाने के दौरान. छपरा में चढ़े. एकमा जाना था उन्हें. नेताजी अकेले कैसे जाते, इसलिए दो चमचे भी साथ ले लिये थे. माथे पर तिलक. नुकीली मूंछ. आंखों पर काला चश्मा. गले में सफेद अंगोछी. होंठ पर पान की लाली. ये सब उनके व्यक्तित्व को अंलकृत कर रहे थे. उन्हें बस में चढ़ते देख कंडक्टर भी सहम गया. चूंकि बस टाटानगर से आ रही थी, तो दूर के यात्राी अभी सो ही रहे थे. जिन्हें एकमा उतरना था, बस वही जग रहे थे.
वे भी सतर्क हो गये नेताजी को देख कर. नेताजी ने छपरा में खाली हुई एक सीट पर आसन टिकाया. उनके चंगू-मंगू भी पीछे की सीट पर जम गये. उनका तेज देख कंडक्टर पसोपेश में पड़ गया. किराया मांगे कैसे? लेकिन, किराया लेना उसका हक था. हक के एहसास ने उसके मन के डर को ललकारा. पहुंच गया नेताजी के पास किराया मांगने. अब कोई ऐरा-गैरा कंडक्टर पैसा मांगे, नेताजी को कहां गंवारा! आ गये तेवर में. पकड़ लिया कंडक्टर का कॉलर.
कहा- ‘रे तोरा हिम्मत कइसे भइल रे, पइसा मांगेके? जानत नइख हमरा के, तोरा नियर कए गो कंडक्टर अइलें-गइलें.’ अभी नेताजी ने तो इतना ही कहा था कि उनके गुर्गो ने भी कंडक्टर के खिलाफ मोर्चा संभाल लिया. पूरी बस में अफरा-तफरी का माहौल. कंडक्टर भी मन ही मन सोचने लगा कि मति मारी गयी थी, जो पैसे मांगने गया. सरे-बस इज्जत उतर गयी. टाटा से छपरा तक निरहुआ की तरह स्टाइल मारते आ रहा था, सारी हीरोबाजी निकल गयी. कुछ लोगों ने बीच-बचाव किया. ड्राइवर भी स्टीयरिंग छोड़ आ गया. उसकी भी हिम्मत कहां थी नेताजी के खिलाफ कुछ बोलने की. इसीलिए सारा गुस्सा कंडक्टर पर ही निकाल लिया.
उसने कंडक्टर से कहा, ‘रे तोहरा आदमी ना चिन्हाला, केकरा से पइसा मंगले ह. इहां के ए जवार के बड़का आदमी हइं.’ ड्राइवर के इतना कहते ही कंडक्टर सहित सब लोग भौंचक्क. मामला शांत हुआ. इतने में एकमा भी आ गया था. नेताजी कॉलर उछालते और कंडक्टर को घूरते हुए बस से उतरे. लेकिन मैं सीवान तक इसी सवाल में उलझा रहा कि गलती किसकी थी, कंडक्टर की या नेताजी की? अंतत: यही निष्कर्ष निकाला कि गलती तो कंडक्टर की ही थी, उसने किराया मांगा ही क्यों?