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तेल के बाजार बिगाड़ते कारक

संजय बारू वरिष्ठ पत्रकार द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक sanjayabaru@gmail.com आपूर्ति के पाले में वेनेजुएला से लेकर ईरान तक और मांग के पाले में फ्रांस से लेकिर भारत तक तेल के बाजार में एक बार फिर सियासतदानों और भूराजनीतिक रणनीतिकारों का दखल हावी है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वैश्विक स्तर पर ‘उचित […]

संजय बारू

वरिष्ठ पत्रकार

द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर के लेखक

sanjayabaru@gmail.com

आपूर्ति के पाले में वेनेजुएला से लेकर ईरान तक और मांग के पाले में फ्रांस से लेकिर भारत तक तेल के बाजार में एक बार फिर सियासतदानों और भूराजनीतिक रणनीतिकारों का दखल हावी है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वैश्विक स्तर पर ‘उचित व्यापारिक व्यवहारों’ की वकालत करते हुए वेनेजुएला तथा ईरान से तेल के निर्यात पर एकतरफा रोक लगाने जैसे अत्यंत अनुचित व्यापारिक व्यवहार का सहारा लिया है. ट्रंप के इस कदम से न केवल अमेरिका के अमित्र तेल निर्यातकों को, बल्कि उसके भारत जैसे मित्र देशों को भी चोट पहुंचेगी.

भारत के कुल ऊर्जा उपभोग में जहां तेल का हिस्सा घटता तथा गैस एवं नवीकरणीयों का बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह भी एक तथ्य है कि पिछले दो दशकों के दौरान भारत के तेल उपभोग में आयातों का हिस्सा तेजी से बढ़कर अब 80 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच चुका है. यही नहीं, इसके और भी अधिक बढ़ते हुए जल्दी ही 90 प्रतिशत से भी अधिक हो जाने का अनुमान भी किया जाता है.ऊर्जा के वैश्विक परिदृश्य के संदर्भ में संभावित भूराजनीतिक जोखिमें तेल के बाजारों को एक बार पुनः अव्यवस्थित कर दे सकती हैं.

इस सामान्य-से दिखते अवलोकन की अहमियत पर जोर दिये बगैर सत्तामूलक सियासत के उस कारक को नहीं समझा जा सकता, जो तेल के बाजारों के साथ-साथ खासकर विश्व की निर्धन अर्थव्यवस्थाओं के विकास की संभावनाएं भी सतत बाधित किये दे रहा है. विडंबना यह है कि आर्थिक विश्लेषकों की एक बड़ी तादाद अपने विश्लेषणों में इन जोखिमों को शामिल ही नहीं करती.

भारत कच्चे तेल की अपनी आवश्यकताओं के दो-तिहाई से भी ज्यादा की पूर्ति मुख्यतः इराक, सऊदी अरब एवं ईरान जैसे पश्चिम एशियाई देशों से करता है. पिछले तीन वर्षों में वेनेजुएला से हमारा तेल आयात घटा है, जबकि इसी दौरान ईरान से इसमें बढ़ोतरी हुई है. अमेरिका से भी हमारे यहां इस आपूर्ति का तीन प्रतिशत तेल आता है. ईरान से हमारे तेल आयात के अपने अलग आर्थिक एवं भूराजनीतिक आयाम हैं. आर्थिक आयाम उसके तेल की कीमत है, क्योंकि ईरानी तेल हमारे लिए सस्ता पड़ता है और हाल में तो ईरान से आयातित तेल का यह मूल्य वस्तुओं की अदला-बदली की व्यवस्थाओं द्वारा भी चुकाया गया है.

इस आयात का भूराजनीतिक पहलू ईरान द्वारा भारत को अफगानिस्तान एवं मध्य एशिया तक पहुंच की पेशकश है. हाल में भारत ने पश्चिम एशिया के शिया देशों (इराक एवं ईरान) के साथ ही सुन्नी देशों (सऊदी अरब और यूएई) के साथ भी अपने संबंधों को बेहतर करने की कोशिशें की हैं.

अमेरिका द्वारा ईरान पर आतंक के निर्यात का आरोप पाकिस्तान के साथ अस्पष्ट अमेरिकी नीति के आलोक में खोखला ही लगता है. प्रत्येक देश के अपने विशिष्ट आर्थिक तथा भूराजनीतिक हित होते हैं, जो उसके नीति संबंधी विकल्पों की दिशा तय करते हैं.

इसलिए भारत के सामने इसके अलावा कोई अन्य उपाय नहीं कि वह अमेरिका तथा ईरान दोनों ही के साथ सामंजस्य बिठाये. उसे अपनी भंगिमाओं से एक ओर तो राष्ट्रपति ट्रंप को प्रसन्न रखना पड़ेगा, जबकि दूसरी ओर उसे ईरान को भी अच्छे रिश्तों का आश्वासन देते रहना होगा. जहां भारत सरकार को तेल की भूराजनीति से निपटना है, वहीं सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को तेल की घरेलू सियासत से भी दो-चार होना है.

सोनिया कांग्रेस एवं वाम मोर्चे ने सरकार से यह मांग की है कि वह अमेरिका की नीति का अनुसरण न करते हुए ईरान पर उसके द्वारा लगाये प्रतिबंधों को खारिज कर दे. कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि वह इस मुद्दे पर एक कमजोर स्थिति में है. भारत को तेल के निर्यातकों में ईरान वर्ष 2013 के सातवें पायदान से उठकर 2018 में तीसरे स्थान पर पहुंच गया.

यह एक सच्चाई है कि यूपीए सरकार के दौरान भी अमेरिकी दबाव के चलते भारत सरकार को समय-समय पर ईरान से तेल के आयात में कमी करनी पड़ती थी.

इसलिए कांग्रेस प्रवक्ता द्वारा मोदी सरकार के लिए इस मामले में दी गयी चेतावनी का कोई अर्थ नहीं है. तथ्य यह है कि पिछले तीन वर्षों के दौरान मोदी सरकार ने ईरान से कच्चे तेल के आयात में 36.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी करते हुए ईरान को सऊदी अरब तथा इराक के बाद भारत को कच्चे तेल का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक बना डाला है.

अलबत्ता, वाम मोर्चा अवश्य ही ईरानी तेल आयात पर अपनी नीति के मुतल्लिक ज्यादा एकरूप रहा है, पर वह उसकी अमेरिका-विरोधी नीति के साथ ही उसके द्वारा अपने मुस्लिम मतदाताओं का ख्याल रखने का प्रतिफल है.

यूपीए सरकार के दौरान वाम दल जब भी तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अमेरिका और ईरान के साथ उनकी नीतियों को लेकर नसीहतें देते, तो वे न केवल उन्हें यह याद दिलाना न भूलते कि उन्हें भारत के राष्ट्रीय हितों की पूरी जानकारी है, बल्कि ‘विदेश नीति के सांप्रदायीकरण’ की उनकी कोशिशों की आलोचना भी किया करते. दरअसल, तेल के बाजारों के लिए राजनीति एवं भूराजनीति की रपटीली राहों से होकर गुजरने के सिवाय कोई अन्य चारा भी तो नहीं है.

(अनुवाद : विजय नंदन)

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