नमो सरकार ने जब से सरकारी कामकाज हिंदी में करने को कहा है, तब से देश के कई राज्य इसके विरोध में खड़े हो गये हैं. हद तो तब हो गयी, जब ओड़िशा विधानसभा में विधायकों को हिंदी में सवाल पूछने से भी मना कर दिया गया. कई राज्यों ने मोदी सरकार पर आरोप लगाया कि सरकार उन पर हिंदी को थोपी जा रही है. उन्होंने अंगरेजी में काम करने की आजादी की भी मांग की.
एक विदेशी भाषा से इतना लगाव और अपनी राष्ट्रभाषा के प्रति ऐसा तुच्छ नजरिया समझ से परे है. हमारी इसी मानसिकता के कारण लगभग एक अरब लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की अधिकारिक भाषा का दर्जा नहीं मिल पाया है, जबकि हमारी जनसंख्या के 10वें हिस्से द्वारा बोली जाने वाली फ्रेंच और स्पैनिश को संयुक्त राष्ट्र की अधिकारिक भाषाओं में शामिल हैं. तो हिंदी की इस दुर्दशा का जिम्मेवार कौन है? इसके जिम्मेवारों में देश के नेता, विभिन्न क्षेत्रों की लोकप्रिय हस्तियों के साथ ही आम जनता भी शामिल है.
एक तरफ, नेता देश की एकता और अखंडता की दुहाई देते हैं, तो दूसरी तरफ गैर-बंगाली, गैर-मराठी और तमिल-तेलुगू के नाम पर विद्वेष पैदा करते हैं. हिंदी फिल्मों में काम करने वाले कलाकार आम जनता के बीच जाने पर हिंदी बोलना पसंद नहीं करते. वे तो अपनी फिल्मों का प्रचार भी अंगरेजी में करते हैं. क्रिकेट और कॉरपोरेट हस्तियां तो हिंदी बोलना अपनी शान के खिलाफ समझती हैं. इनसे हिंदी के विकास में योगदान की उम्मीद करना बेमानी है. इन सबसे बढ़कर गुनहगार हैं हम हिंदुस्तानी, जो हिंदी में बात करने वालों को अनपढ़ और अंगरेजी बोलने वालों को विद्वान समझते हैं. इसीलिए हिंदुस्तान की पहचान हिंदी आज अपनी जन्मभूमि में भी अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही है.
अरुण महतो, ई-मेल से