मानसून की मार और भारतीय किसान के बीच एक सनातन किस्म का रिश्ता बन गया है. कहा जाता है कि मानसून का मिजाज अगर टेढ़ा हुआ, तो अर्थव्यवस्था की सेहत बिगड़ेगी. अनाज का उत्पादन कम होगा, कृषि-उत्पाद महंगे होंगे, ग्रामीण आबादी की क्रयक्षमता में कमी आयेगी और इन सारी वजहों से पांच लाख से अधिक गांव गरीबी के दुष्चक्र से निकलने के संघर्ष में लगातार पिछड़ते जायेंगे.
इस वर्ष भी मानसून को लेकर आशंकाओं का दौर जारी है. मौसम विभाग अपने आकलन को लगातार दुरुस्त कर रहा है, लेकिन मानसून है कि उसके आकलन को झूठा साबित करते हुए कहीं अनुमान से कम बरस रहा है, तो कहीं देर से पहुंच रहा है. एक ऐसे वक्त में जब नयी सरकार अपना बजट पेश करने से चंद दिनों दूर है, विश्लेषक यह अनुमान लगायेंगे कि बजट में मानसून से पड़ने वाली चोट से उबरने के लिए कृषि के मद में सरकार अपने खजाने को कितना खोलती है और सरकार की तरफ से पुरानी दलील पेश की जायेगी कि हम महंगाई को नियंत्रण में रखने की कोशिश कर रहे हैं, पर उसका बढ़ना तय है, क्योंकि खेती पर मानसून की मार पड़ी है.
खेती में राहत और महंगाई की व्याख्या के रूप में पेश की जाने वाली सरकारी दलील के इन दो ध्रुवों से परे देखने की कोशिश करें, तो साफ है कि देश की कृषि नीति सिंचाई सुविधाओं के मामले में हकीकत के नकार पर टिकी है और इस नकार का सीधा रिश्ता ग्रामीण आबादी की गरीबी से है. देश की कुल गरीब आबादी का 69 फीसदी हिस्सा सिंचाई सुविधा से वंचित इलाकों में रहता है, जबकि सिंचाई की सुविधा से संपन्न इलाकों में गरीबों की संख्या महज दो फीसदी है.
इतिहास यह भी बताता है कि सिंचाई की सुविधाओं, खासकर भूमिगत जल के उपयोग में वृद्धि कर मानसून की मार के बीच अनाज उत्पादन बढ़ाने में भारत सफल हुआ है. 1965-66 और 1987-88 के साल सूखा पड़ा था, लेकिन पहले में अनाज उत्पादन 19 फीसदी घटा था, जबकि दूसरे में महज दो फीसदी. वजह थी, सिंचाई के लिए भूमिगत जल के उपयोग में वृद्धि. जरूरत मानसून की मार के आगे लाचार भारतीय कृषि के मुहावरे से निकलकर एक ऐसी सिंचाई नीति विकसित करने की है, जो जल-संसाधन के टिकाऊ प्रबंधन पर आधारित हो.