।। पुण्य प्रसून वाजपेयी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
जिस देश के तीन लाख छात्र उच्च शिक्षा के लिए हर बरस विदेश चले जाते हों और देश के शिक्षा मंत्रालय के बजट से दोगुनी रकम ये छात्र विदेशी यूनिवर्सिटी को पढ़ाई के एवज में दे देते हों, उस देश में अगर उच्च शिक्षा को लेकर यह सवाल उठे कि स्नातक कार्यक्रम तीन बरस रहे या चार बरस, इससे ज्यादा शिक्षा की त्रासदी और कुछ हो नहीं सकती है. इतना ही नहीं, जिस देश के छात्र डाक्टरी, इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट की शिक्षा के लिए विदेश जायें और शिक्षा लेने के बाद सिर्फ पांच फीसदी ही अपने देश लौटें, उस देश का खुद को आगे बढ़ाने का कौन सा विजन काम कर रहा होगा, यह सबसे बड़ा सवाल है. सच यही है कि विश्व बाजार में उच्च शिक्षा की कीमत खासी महंगी है और इस महंगी शिक्षा के जरिये मोटी कमाई दुनिया के बाजार से हो सकती है. इसलिए भारत न तो उच्च शिक्षा देने की स्थिति में है, न ही उच्च शिक्षा पाने वाले छात्रों को विश्व बाजार के अनुकूल नौकरी दे पाने की स्थिति में. इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय विदेशी शिक्षा से जोड़ने की पहली प्रयोगशाला बनी और कोई विजन न होने की वजह से लाखों छात्रों को गिनी-पिग बना दिया गया.
भारत की उच्च शिक्षा को दुनिया के खुले बाजार में लाने का पहला बड़ा प्रयास वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए सरकार ने किया था. मनमोहन सिंह सरकार ने भी इस नजरिये पर मोहर लगा दी. लेकिन शिक्षा का बाजारीकरण तब और खुल कर सामने आया, जब अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्ंिलटन ने इंडो-अमेरिकन संवाद में दो सवाल सीधे उठाये. पहला, अमेरिका चाहता था कि दुनिया के दूसरे हिस्सों से छात्र अमेरिका में पढ़ने आयें तथा दूसरा भारत में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के कैंपस स्थापित हों. अमेरिका अपने यहां लगातार उच्च शिक्षा में सरकारी अनुदान कम कर रहा है. लेकिन अमेरिकी विश्वविद्यालयों की कमाई के लिए वह भारत जैसे देश पर दबाव भी बना रहा है. भारत इस दबाव के आगे झुका, इससे इंकार नहीं किया जा सकता. क्योंकि इसी के बाद भारत में भी शिक्षा का पैटर्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों जैसा करने की पहल हुई, जिसका पहला प्रयोग दिल्ली विश्वविद्यालय में चार बरस के ग्रेजुएट कार्यक्रम से हुआ.
सवाल यह नहीं है कि अब देश में सरकार बदली है, तो चार बरस का कोर्स दोबारा तीन बरस का हो जायेगा. असल सवाल यह है कि भारत की उच्च शिक्षा को जिस तरह दुनिया के बाजार में धंधे के लिए खोल दिया गया है, क्या इसे रोका जायेगा, और क्या अमेरिका का जो दबाव भारत पर उच्च शिक्षा का लेकर है, उससे भारत मुक्त होगा. जब तक मोदी सरकार यह बात खुल कर नहीं कहती है और उच्च शिक्षा को किसी दबाव में नहीं बदला जायेगा, तब तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की गरिमा भी बेमानी होगी. विश्वविद्यालय की स्वायतत्ता भी नहीं बचेगी और उच्च्च शिक्षा के नाम पर छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ भी होगा. और लगेगा यही कि सियासत जीत गयी, जो ज्यादा खतरनाक होगा. भारत की उच्च शिक्षा का विदेशी सच कितना त्रसदी वाला है, इसे आंकड़ों से समझा जा सकता है.
उच्च शिक्षा के लिए करीब तीन लाख भारतीय छात्र विदेशों में हर बरस जाते हैं, जिनका खर्चा 78 हजार करोड़ रुपये सालाना है. इसमें भी सिर्फ अमेरिका जाने वाले कंप्यूटर एक्सपर्ट से भारत को 12 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है. अब सवाल है कि नरेंद्र मोदी जनादेश की जिस ताकत के साथ प्रधानमंत्री बने हैं, अरसे बाद असर उसी का है कि उच्च शिक्षा पर तेजी से निर्णय लेने की स्थिति में यूजीसी भी आ गयी है और दिल्ली विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का सवाल कुलपति के तानाशाही निर्णय के दायरे में सिमट गया है. बीते डेढ़ दशक से उच्च शिक्षा को लेकर लगातार जो प्रयोग बिना किसी विजन के होते रहे और कुछ हद तक परिणाम इसका भी रहा कि उल-जुलूल पाठ्यक्रम शुरू किये गये और उसे प्रोफेशनल करार दिया गया. लेकिन अब उस पर नकेल कसने की पहली शुरुआत जिस तरह हुई, उसका सच, समझ नहीं, सियासत ज्यादा है. मौजूदा निर्णय भाजपा ने अपने घोषणापत्र के मुताबिक ही लिया है. इसमें यूजीसी की भूमिका कहां है, क्योंकि पिछले बरस ही डीयू के वीसी ने जब चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम लागू कर दिया, तो यूजीसी ने इसकी समीक्षा के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति बनायी, जिससे जानकारी मांगी गयी कि पूरे देश में इसे लागू किया जा सकता है या नहीं. ये समिति अभी भी बनी हुई है और जो यूजीसी आज तलवार भांज रही है, पिछले बरस तक चार बरस के कार्यक्रम के खिलाफ नहीं थी. पिछले साल समिति की बैठक में दो ही सवाल उठे. पहला दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति को नये कार्यक्रम लागू करने से छह महीने पहले जानकारी देनी चाहिए और दूसरा यूजीसी विश्वविद्यालय की सुपर बास होकर निर्णय नहीं ले सकती है. यूजीसी ने इस फैसले को पूरे देश में लागू करने का मन बना लिया था. लेकिन अब जो निर्णय लिया जा रहा है, वह कहीं ज्यादा परेशानी पैदा करने वाला है.
जिस तेजी से उच्च शिक्षा के लिए प्रतिभाओं का पलायन हो रहा है, वह देश के लिए खतरनाक है. साइंस, इंजीनियरिंग और मेडिकल में पीएचडी करने के लिए जाने वाले छात्रों में से सिर्फ पांच फीसदी भारत लौटते हैं. भारत के 75 फीसदी वैज्ञानिक अमेरिका में हैं, 40 फीसदी रिसर्च स्कॉलर विदेश में हैं. अमेरिका एच-1बी वीजा के कुल कोटा का 47 फीसदी भारतीय प्रोफेशनल्स को बांट रहा है और अक्तूबर, 2013 के बाद अमेरिका जाने वालों में 40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. अब ऐसी हालात में अगर छात्रों के भविष्य को लेकर मंत्री, नौकरशाह और कुलपति की अपनी-अपनी समझ हो और इन तीनों में कोई तालमेल न हो, तो क्या होगा!
दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति का मानना है कि उन्होंने चार बरस के शिक्षा सत्र के जरिये अंतरराष्ट्रीय शिक्षा बाजार में भारतीय छात्रों की मांग बढ़ा दी है. यूजीसी का मानना है कि जब शिक्षा देने का पूरा इंफ्रास्ट्रर नहीं है, तो फिर चार बरस क्यों? वहीं सरकार का मानना है कि मौजूदा शिक्षा सत्र को विदेशी विश्वविद्यालय के लिए जानबूझ कर नायाब प्रयोग करने की जरूरत क्यों है? ध्यान दें, तो तीनों अपनी-अपनी जगह सही हैं, लेकिन मुश्किल यह है कि पहली बार दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रयोग ने वह कलई ही खोल दी है, जहां उच्च शिक्षा को लेकर कोई समझ न तो सरकार के पास है, न ही यूजीसी ने विकसित की और विश्वविद्यालयों के मुखिया सिर्फ घाटा-मुनाफा तौलते हुए मुनाफेदार शिक्षा की प्रयोगशाला में छात्रों को गिनी-पिग बना बैठे हैं.