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डेढ़ सौ रुपये की रोटी
क्षमा शर्मा वरिष्ठ पत्रकार kshamasharma1@gmail.com कुछ दिन पहले खान-पान के एक मेले में गयी थी. वहां तरह-तरह के भोजन मिल रहे थे. कहीं चाट-पकौड़े, कहीं छोले-भटूरे, कहीं पुलाव, कहीं भेलपूरी, तो कहीं आलू पूरी, डोसा, इडली, बड़ा, पोहा, ढोकला, तरह-तरह की मिठाइयां, शर्बत, फलों और गन्ने का रस के साथ तरह-तरह के अन्य पान भी […]
क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
kshamasharma1@gmail.com
कुछ दिन पहले खान-पान के एक मेले में गयी थी. वहां तरह-तरह के भोजन मिल रहे थे. कहीं चाट-पकौड़े, कहीं छोले-भटूरे, कहीं पुलाव, कहीं भेलपूरी, तो कहीं आलू पूरी, डोसा, इडली, बड़ा, पोहा, ढोकला, तरह-तरह की मिठाइयां, शर्बत, फलों और गन्ने का रस के साथ तरह-तरह के अन्य पान भी थे.
कुछ आगे बढ़ी तो सरसों का साग, मक्के की रोटी और बाजरे की रोटी की खुशबू भी आ रही थी. ये रोटियां चूल्हे पर सेंकी जा रही थीं. और महिलाएं अपने हाथ में लेकर बिना चकले-बेलन की सहायता से इन्हें पका रही थीं.
इन महिलाओं को देखकर बचपन याद आने लगा. इसी तरह से तो घर में मां, दादी, नानी, बुआ , चाची, ताई रोटियां पकाती थीं. मोटी नरम और फूली हुई सौंधी खुशबूदार रोटियां. उन पर घी लगाकर गुड़ या उड़द की दाल के साथ खाने का आनंद ही कुछ और था. तब इसमें कुछ अनोखा भी नहीं लगता था. रोज की बात जो ठहरी. पर, आज इस तरह से रोटियां किसी शहर में तो पकती नहीं दिखतीं. चूल्हे गायब हो गये हैं.
पुरानी पीढ़ी की वे महिलाएं भी अब नहीं रहीं, जिन्हें तरह-तरह की रोटी पकाने की यह कला आती थी. आजकल घरों में ये रोटियां पकती भी हैं, तो इनमें गेहूं का आटा मिलाकर इन्हें बनाना पड़ता है. शुद्ध मक्के या बाजरे के आटे की रोटियां चकला-बेलन से नहीं बन पाती हैं.
हमारे समाज में हर मौसम का खान-पान उस मौसम की फसलों के हिसाब से तय था. यह स्वास्थ्य लिए भी अच्छा माना जाता था. लेकिन, गेहूं की लोकप्रियता ने इन मोटे अनाजों को मध्यवर्ग की रसोई से बेदखल कर दिया. और यह सोच भी बढ़ी कि मोटे अनाज गरीबों का भोजन होते हैं और गेहूं अमीरों का.
खैर, उस मेले में बाजरे की रोटियां देखकर मन ललचा ही आया. मैंने पूछा कि बाजरे की रोटी कितने की है, तो पता चला कि एक रोटी की कीमत डेढ़ सौ रुपये है.
कीमत सुनकर मुझे बड़ी हैरत हुई. एक दौर में जिस रोटी के लिए मां मनुहार करती रहती थी और हम उसे सीमेंट की रोटियां कहकर खाने से बचने की कोशिश करते थे, उस रोटी की पहुंच भी अब आम आदमियों से इस कदर दूर हो गयी! हालांकि, यह भी लगा कि डेढ़ सौ रुपये में तो अब भी बाजरे का इतना आटा आ जायेगा कि पूरे महीने की रोटियां बन सकें.
जो खान-पान हमारी दैनिक जरूरतों और चलन से दूर हो जाता है, वह अकसर विशेष के नाम पर आम लोगों से दूर तो हो जाता है, मगर पैसे वालों के करीब पहुंच जाता है.
इसीलिए एक दौर ऐसा भी आया कि मोटे अनाजों की पैदावार भी कम होने लगी. अब नये सिरे से खान-पान विशेषज्ञ कहते हैं कि इन अनाजों को खाना स्वास्थ्य के लिए बेहतर है. अब ये अनाज फिर से लौट रहे हैं. मगर एक रोटी बाजार में अगर डेढ़ सौ रुपये की मिलने लगे, तो सोचिये कि कितने लोग इसे खायेंगे? मुझे खुद भी उसे खरीदने की हिम्मत नहीं पड़ी.
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