1977 और 1998 में नेता प्रतिपक्ष के चयन से संबंधित कानूनों के निर्धारण के बाद देश के संसदीय इतिहास में पहली बार सबसे बड़े विपक्षी दल को इतनी कम सीटें मिली हैं. नियम बताते हैं कि इस स्थिति में किसी भी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिलने वाला है. अभी नेता प्रतिपक्ष की भूमिका केवल सरकारी कामकाज की चौकसी नहीं है, बल्कि विभिन्न महत्वपूर्ण चयनों में भी उसकी भूमिका तय है.
वैसे आज जो लोग नेता प्रतिपक्ष न होने पर स्यापा कर रहे हैं, उन्हें क्या यह पता नहीं कि नेहरू और इंदिरा के दौर में विपक्षी दल के नेता को महत्वपूर्ण नियुक्तियों में शामिल नहीं किया जाता था? ऐसे में किसी भी तरह के संकट की बात उचित नहीं है. सरकार को लोकसभा अध्यक्ष, संसदीय कार्य मंत्री और संसदीय मामलों के विशेषज्ञों की सलाह के मुताबिक काम करना चाहिए.
हेमंत कुमार, ई-मेल से