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फेक न्यूज का हिंसक दौर
अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in सोशल मीडिया पर प्रचारित अफवाह के कारण पिछले कुछ ही महीनों में देशभर में तीस से ज्यादा बर्बरतापूर्ण हत्याएं हुई हैं. सभी हत्याएं भीड़ द्वारा की गयी हैं. इसमें से किसी चेहरे की पहचान नहीं है. झारखंड में सबसे पहली घटना हुई, जहां बच्चा चोरी […]
अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
सोशल मीडिया पर प्रचारित अफवाह के कारण पिछले कुछ ही महीनों में देशभर में तीस से ज्यादा बर्बरतापूर्ण हत्याएं हुई हैं. सभी हत्याएं भीड़ द्वारा की गयी हैं. इसमें से किसी चेहरे की पहचान नहीं है.
झारखंड में सबसे पहली घटना हुई, जहां बच्चा चोरी के आरोप में सात लोगों को भीड़ ने पीट-पीट कर मार डाला. सोशल मीडिया पर यह अफवाह थी कि बच्चा चोरी करनेवाला गिरोह सक्रिय है. बच्चा चोरी का यह मामला देखते ही देखते पूरे देश में आग की तरह फैल गया. महाराष्ट्र में भीड़ ने पांच निर्दोषों की हत्या कर डाली. तमिलनाडु में तीन निर्दोषों की हत्या हुई. असम में घूमने निकले दो युवकों को भीड़ ने मार डाला.
यह घटनाएं दस से ज्यादा राज्यों में नृशंसतापूर्वक घटित हुई. इन सभी की वजह सोशल मीडिया में प्रचारित फेक न्यूज हैं. ये सभी प्रत्यक्ष हिंसक घटनाएं थीं, जिनमें सीधेे जान ली गयी. ऐसी ही अनगिनत झूठी खबरें रोज फेसबुक, व्हाटसएप, ट्यूटर, इंटरनेट इत्यादि से दुनियाभर में फैलायी जा रही हैं, जिनमें चरित्र हनन जैसी घटनाएं आम हैं.
एक दौर था जब खबरें देर से पहुंचती थीं और हम धैर्य के साथ उनका इंतजार करते थे. तब खबरों की विश्वसनीयता भी हुआ करती थी. अब लगता है संचार क्रांति ने हमारी सुविधाएं ही नहीं बल्कि हमारा मनोविज्ञान बदल दिया है. हम 4जी से 5जी की ओर तेजी से बढ़े हैं और उसी तेजी से हमारा धैर्य और विवेक भी खत्म हो रहा है.
क्लिक करते ही हमें सबकुछ चाहिए, क्लिक करते ही हमें न्याय भी चाहिए. क्या भीड़ द्वारा की जा रही हत्या उस कुंठित मनोविज्ञान का परिणाम है, जो यह मानती है कि इस समाज में आम जनता को न्याय मिलता ही नहीं? संचार साधनों की उपलब्धता ने हमारे अंदर की हिंसा व पशुता को अभिव्यक्ति का सहज माध्यम दे दिया है?
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में, दो महायुद्धों के दौरान ‘प्रोपेगंडा’ शब्द चलन में आया था. जिसमें एक पक्ष दूसरे के बारे में कूटनीतिक अफवाहें फैलाता था. शीतयुद्ध के दौरान इसमें और तेजी आयी. साम्यवादी रूस और साम्राज्यवादी अमेरिका एक-दूसरे के विरुद्ध जमकर दुष्प्रचार करते थे. अमेरिका ने खाड़ी देशों में हमले के लिए सबसे ज्यादा झूठ फैलाया. अब आधी लड़ाई तो प्रोपेगंडा से ही जीती जाती है.
यानी सूचना ही ताकत है, जो जैसे प्रचारित और नियंत्रित कर सके. यह तो सत्ता केंद्र में बैठे शक्तिशाली लोगों का पक्ष है, जिनके हाथ में मीडिया का नियंत्रण रहता है. वे अपनी वैचारिकी और महत्वाकांक्षा के अनुसार सूचनाओं का प्रसारण करते हैं. सूचना क्रांति के बाद अब मीडिया जनता के हाथ में भी है. यानी, चीजें अब कुछ हद तक उसके नियंत्रण में भी हैं. एक टच और एक क्लिक से वह अपने अहं को संतुष्ट कर सकता है. यह अहं की तुष्टि ही फेक न्यूज का जनक है.
सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति और उसकी पहुंच को तेज कर दिया है. जाने-अनजाने हर कोई उस प्रोपेगंडा में शामिल है, जिसे कोई व्यक्ति, समूह या राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए फैला रहा है.
उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया में नेहरू जी की एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें वे कुछ अर्द्धनग्न लड़कियों से घिरे थे. उस पर बहुत ही भद्दा कैप्शन लगा हुआ था. यह तस्वीर किसी राजनीतिक दल के प्रोपेगंडा का परिणाम था, जिसे तकनीकी छेड़छाड़ के जरिये बनाया गया था. यह फेक न्यूज भी था और राजनीतिक प्रोपेगंडा भी. एक समूह द्वारा दूसरे समूह के चरित्र हनन के जरिये राजनीतिक माहौल बनाने का चलन अब तेज हो गया है.
बिना सोचे-समझे हर कोई इसमें हिस्सेदारी कर रहा है. इसके लिए व्हाट्सएप का सबसे ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है. अपनी-अपनी सोच और वैचारिकी के हिसाब से लोगों के व्हाट्सएप ग्रुप बने हुए हैं, जहां बेरोक-टोक धड़ल्ले से फेक न्यूज क्रिएट और शेयर किये जा रहे हैं. लोग अपनी भावनाओं के अनुरूप चीजों को ही क्रिएट और शेयर कर रहे हैं.
बीबीसी द्वारा फेक न्यूज पर किये गए रिसर्च ‘बियॉन्ड द फेक न्यूज’ के अनुसार भारत में किये गये डाटा विश्लेषण से राजनीतिक विचारधारा भी सामने आयी है. िरपोर्ट के जरिये फेक न्यूज के वामपंथी रुझान और दक्षिणपंथी रुझान का विश्लेषण किया गया है. दक्षिणपंथी झुकाव वाले फेक न्यूज ज्यादा प्रभावशाली तरीके से फैले हैं. प्रधानमंत्री मोदी को समर्थन करनेवाले कई ग्रुप और वेबसाइट हैं, जो लगातार फेक न्यूज तैयार कर रहे हैं.
राष्ट्र से जुड़ी लोगों की सच्ची भावना को फेक न्यूज निर्माता अपनी वैचारिकी व राजनीतिक लाभ हेतु इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि लोग तथ्यों की जांच किये बिना उसे अनजाने ही शेयर कर रहे हैं. देखा गया है कि धर्म की भावना से गहरे जुड़ाव के कारण भी लोग तथ्यों को नहीं जानते और धार्मिक भावनाओं पर हमले करते है.
हमारे देश में केवल व्हाट्सएप के बीस करोड़ से ज्यादा यूजर हैं. व्यक्ति, समूह या संस्थाओं के द्वारा धड़ल्ले से प्रचार-दुष्प्रचार के लिए यह सबसे आसान माध्यम बन गया है. हम दैनिक यूजर इसकी गिरफ्त में हैं. तथ्यों की जांच किये बिना खबरों को साझा करने से बचना चाहिए. झूठी खबरों से न समाज का हित संभव है, न हम अपने ज्ञान का संवर्धन कर सकते हैं, न इससे चेतना ही परिष्कृत होगी. झूठी खबरों का परिणाम अंतत: हिंसक ही होता है.
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