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क्यों नाराज हैं अन्नदाता
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in दो अक्तूबर को महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर किसान दिल्ली में धरने पर बैठे थे. हम सब ने पुलिस से उनके संघर्ष की तस्वीरें देखीं. जय जवान जय किसान का नारा देश को देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिन के […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
दो अक्तूबर को महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर किसान दिल्ली में धरने पर बैठे थे. हम सब ने पुलिस से उनके संघर्ष की तस्वीरें देखीं. जय जवान जय किसान का नारा देश को देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिन के दिन देश के पुलिस बल के जवान और किसान आमने सामने थे.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसानों को अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरना पड़ा. किसानों की चिंताजनक स्थिति का अंदाज इस बात से लगता है कि पिछले 10 वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले लगभग तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है.
पिछले कुछ अरसे में यह छठा मौका था, जब किसानों ने दिल्ली में अपनी दस्तक दी. महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्यप्रदेश और तमिलनाडु के बाद इस बार मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन की राह पर थे. इनमें उत्तराखंड, हरियाणा और पंजाब के भी किसान शामिल थे. हालांकि, इसके पहले भी किसान अपनी मांगों को लेकर मोर्चे निकाल चुके हैं.
मार्च, 2018 में बड़ी संख्या में महाराष्ट्र के किसान मुंबई की विधानसभा का घेराव करने वहां पहुंचे थे. उन्होंने नासिक से मुंबई की पद यात्रा शुरू की थी और लगभग 200 किलोमीटर की दूरी तय करके वे 11 मार्च को मुंबई पहुंचे थे. रास्ते में उनसे और किसान जुड़ते चले गये और हजारों की संख्या में वे मुंबई पहुंचे थे. किसानों में इस बात को लेकर नाराजगी थी कि महाराष्ट्र सरकार ने पिछले साल कृषि माफी की घोषणा की थी, लेकिन उसे अब तक लागू नहीं किया था.
राजस्थान में भी सरकार से नाराजगी के कारण किसान कई बार सड़कों पर उतरते चुके हैं. किसानों ने सीकर से जयपुर तक बड़ा प्रदर्शन किया था. उस दौरान किसानों ने बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां भी दी थीं. मध्यप्रदेश के मंदसौर में भी बड़ा किसान आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन में भी किसान कर्ज माफी और फसल का सही दाम देने की मांग कर रहे थे. किसानों के उग्र प्रदर्शन पर वहां पुलिस ने फायरिंग कर दी थी, जिसमें छह किसानों की मौत हो गयी थी और कई अन्य बुरी तरह घायल हो गये थे. इसके बाद यह आंदोलन हिंसक हो गया था और गुस्साये किसानों ने जगह-जगह तोड़फोड़ की थी, कई गाड़ियां जला डालीं थीं.
कई जिलों में कर्फ्यू लगाना पड़ा था. अप्रैल, 2017 में तमिलनाडु के हजारों किसानों ने जंतर-मंतर पर विचित्र तरह से प्रदर्शन किया था. किसान अपने साथ खोपड़ी लेकर पहुंचे थे. दावा था कि वे खोपड़ियां आत्महत्या करने वाले किसानों की थीं. इन किसानों ने अर्द्धनग्न होकर, भारी गर्मी में सड़क पर लेट कर, सिर के आधे बाल और आधी मूंछें कटाकर भी प्रदर्शन किया था. किसानों का यह प्रदर्शन 41 दिनों तक चला था और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री को किसानों से बात करने दिल्ली आना पड़ा था.
मौजूदा किसान आंदोलन की मांगें दस सूत्री थीं, जिनमें सबसे अहम थी- गन्ना किसानों का भुगतान, स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू करना, दस साल पुराने ट्रैक्टरों पर लगे प्रतिबंध हटाना, दुर्घटना के वक्त किसानों को मुआवजा और कृषि कार्यों के लिए मुफ्त बिजली उपलब्ध कराना शामिल है.
जब इन मांगों को लेकर हजारों किसान उत्तराखंड के हरिद्वार से चलकर दिल्ली-यूपी के बॉर्डर पर पहुंचे थे, तो उन्हें दिल्ली में प्रवेश करने से रोक दिया गया, जबकि हरिद्वार से रवाना हुई किसान क्रांति यात्रा दस दिन तक शांतिपूर्वक अपना रास्ता तय करती रही.
जब किसानों ने बलपूर्वक घुसने की कोशिश की, तो पुलिस ने लाठी, आंसू गैस और पानी की बौछारों का इस्तेमाल कर उन्हें रोक दिया. केंद्र सरकार से बातचीत और पूरे दिन चले संघर्ष के बाद आखिरकार किसान देर रात दिल्ली में दाखिल हो पाये. चौधरी चरण सिंह की समाधि पर फूल चढ़ाकर और आंदोलन खत्म करने की घोषणा करके वापस लौट गये.
दरअसल, कर्जमाफी किसानों की समस्या का महज एक पक्ष है. उनकी सबसे बड़ी समस्या फसल का उचित मूल्य है. किसान अपनी फसल में जितना लगाता है कि उसका आधा भी नहीं निकलता है. लिहाजा किसान कर्ज में डूबा हुआ है. किसानों पर बैंक से ज्यादा साहूकारों का कर्ज है. यह सही है कि मौजूदा केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य में दो गुना वृद्धि की है, लेकिन खेती में लागत खासी बढ़ गयी है.
दूसरी कुछ व्यावहारिक समस्याएं भी हैं, जैसे- सरकारें बहुत देर से फसल खरीद शुरू करती हैं. तब तक किसान आढ़तियों को फसल बेच चुके होते हैं. कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर भी विवाद पुराना है. जमीनों का बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है, जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. लिहाजा फसल अच्छी नहीं होती, तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
अगर गौर करें, तो पायेंगे कि जब भी किसान आंदोलन होता है, स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों की चर्चा जरूर होती है. दरअसल, किसानों की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए हरित क्रांति के जनक प्रो एमएस स्वामीनाथन की अगुआई में नवंबर, 2004 में एक कमेटी बनी थी.
इस कमेटी ने अक्तूबर, 2006 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें खेती और किसानों की दशा में सुधार के लिए अनेक सिफारिशें थीं. इसमें सबसे प्रमुख सिफारिश थी कृषि को राज्य-सूची से समवर्ती सूची में लाना, ताकि केंद्र व राज्य, दोनों किसानों की मदद के लिए आगे आएं.
कमेटी ने यह भी सिफारिश की थी कि किसानों को अच्छी क्वालिटी के बीज कम-से-कम दाम पर मुहैया कराये जाएं और उन्हें फसल की लागत का पचास प्रतिशत ज्यादा दाम मिले. साथ ही किसानों के कर्ज की ब्याज दर चार प्रतिशत तक लायी जाए, लेकिन आज भी किसान स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को अमल में लाने की जद्दोजहद कर रहे हैं.
दरअसल, दशकों से हमारा तंत्र किसानों के प्रति उदासीन रहा है. मीडिया में भी अब किसानों के प्रदर्शन की खबरें सुर्खियां नहीं बनतीं. अगर बनती भी हैं, तो अक्सर किसानों के आंदोलन और उनकी मांगों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं रखा जाता है. इससे हमारे अन्नदाता के बारे सही छवि नहीं बन पाती है. गौर करें, तो पायेंगे कि विकास की दौड़ में हमारे गांव लगातार पिछड़ रहे हैं. बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों में केंद्रित होकर रह गयी हैं.
आजादी के 70 साल हो गये, लेकिन गांवों में बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है, जबकि यह उनका बुनियादी हक है. यह बात शिद्दत से महसूस की जा रही है कि गांवों का जीवनस्तर सुधरना चाहिए. विकास की प्राथमिकता के केंद्र में गांव होने चाहिए, उन तक भी विकास की किरणें पहुंचनी चाहिए. इसलिए हम सबको किसानों की मुश्किलों और मांगों को जानना जरूरी है.
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