मिथिलेश कु राय
युवा रचनाकार
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हाल-चाल जानने के लिए उस दिन मामी को फोन किया था, तो रात के भोजन के बारे में भी पूछ लिया कि क्या बन रहा है. वह बोलीं- आज इतवार है, बिना नमक का एक टाइम दिन में ही हो गया. मैंने हंसते हुए पूछा- तब तो कल बड़े सवेरे चूल्हा सुलग जायेगा? इस पर वे खिलखिला पड़ीं और बोलीं- अब कल रात में ही.
मैं चौंका- बाप रे! तब तो अब मंगलवार से ही दिन सामान्य हो पायेगा. मेरे यह कहने पर वे खिलखिलाते हुए बोलीं- दिन सामान्य बुधवार से ही होगा. कितने साल से मंगलवारी कर रही हूं. कैसे छोड़ दूं?
मामी आप धन्य हैं! इससे अधिक मैं और क्या कहता. क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र की स्त्रियों के किस्से में व्रत-उपवास किसी नायक-खलनायक की भूमिका में होते हैं. स्त्रियां नायिका होती हैं और वे इसका पालन करने की चिंता में दिनों-दिन सूखकर कांटा होती जाती हैं.
जो स्त्रियां गृहिणी हैं, अगर आप उनके खाने-पीने के रूटीन की तरफ गौर करेंगे, तो ताज्जुब होगा कि वे सेहत को लेकर क्या-कुछ सोचती हैं. अगर लगातार चार दिनों तक का भी कोई व्रत पड़ जाये, तो वे मरणासन्न होने की हद तक उसे पूरा करके ही छोड़ती हैं.
मुझे एक स्त्री की याद आ रही है. पेट की समस्या उन्हें जवानी के दिनों में ही शुरू हो गयी थी. डॉक्टरों को दिखाते हुए वे उम्र के अधेड़ावस्था में पहुंच गयी थीं, लेकिन बीमारी से उन्हें निजात नहीं मिल पाया. घरवाले परेशान थे. एक दिन उन्हें एक बुजुर्ग चिकित्सक के बारे में पता चला. स्त्री को वहां ले जाया गया. चिकित्सक ने उनकी सारी रिपोर्ट देखी और उनसे दस-पंद्रह मिनट बातें की. रोग पकड़ में आ गया.
बोले कि आप रोज सवेरे आठ बजे तक नहा लो और हनुमान-चालीसा पढ़कर दो-तीन रोटी खा लो. तीस दिन तक ऐसा करो और फिर मिलो. साथ में कुछ दवाई दी और परिवार वालों को सख्त हिदायत कि किसी भी सूरत में इन्हें आठ-साढ़े आठ बजे तक नाश्ता करा देना है. जादू हो गया. पहले ही दिन से स्त्री की सेहत में सुधार नोट किया जाने लगा.
यह बात ध्यान देनेवाली है कि ज्यादातर स्त्रियों के जीवन में रात का खाना और उसके बाद दिन के खाने में एक लंबा अंतराल हो जाता है. जिस कारण वे धीरे-धीरे कमजोर और फिर बाद में बीमार रहने लगती हैं.
इस बात को भी नोट कर लेना चाहिए कि इन स्त्रियों को गर्म और ताजा भोजन कम ही नसीब हो पाता है. क्योंकि समाज की संरचना में सबको खिलाकर खुद खाने की परंपरा का निर्माण इनका ही किया हुआ है.
लेकिन अब नयी उम्र की लड़कियों के आचरण से एक आश्वस्ति नजर आती है कि कल को शायद इस तरह की चीजें समाज में न हो. क्योंकि वे भूख के एहसास को मारने में अपना दिमाग नहीं लगा रही हैं.
उस दिन कक्का भी कह रहे थे कि स्त्रियों के लिए जो अबला जैसे शब्दों को गढ़ा गया था, वह इनकी इन्हीं आदतों की वजह से और शारीरिक दुर्बलता के कारण गढ़ा गया था. मगर नयी उम्र की लड़कियां उन शब्दों को अपनी दिनचर्या से विलोपित कर देंगी.