स्वतंत्र भारत की न्यायिक प्रणाली से जुड़ी संविधान सभा की चर्चाओं में पारदर्शिता और निष्पक्षता को सुनिश्चित करने की चिंता प्राथमिक थी. संवैधानिक गणतंत्र की अब तक की यात्रा में शीर्ष न्यायपालिका राष्ट्रीय अपेक्षाओं में कमोबेश खरा उतरी है. लेकिन, इससे संतोष नहीं किया जा सकता है, क्योंकि निचली अदालतों में देरी, लापरवाही और भ्रष्टाचार है तथा उच्च एवं सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में भी विवाद होते रहते हैं.
ऐसे में प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा का यह कहना प्रासंगिक है कि संस्था की बेमानी आलोचना कर उसे नुकसान पहुंचाने के बजाय न्यायिक सुधार की जरूरत पर जोर हो. इस बयान को सर्वोच्च न्यायालय से जुड़े हालिया आंतरिक और बाह्य विवादों तथा सरकार से भी टकराव के कुछ मौकों के संदर्भ में रेखांकित किया जाना चाहिए.
स्वयं प्रधान न्यायाधीश पर भ्रष्टाचार और मनमाने ढंग से काम करने के आरोप लग चुके हैं. यहां तक कहा गया कि संवेदनशील मामलों को कुछ गिने-चुने न्यायाधीशों के जिम्मे दिया जा रहा है. जनवरी में एक संवाददाता सम्मेलन के माध्यम से चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों का सार्वजनिक तौर पर असंतोष व्यक्त करना अभूतपूर्व था. इन विवादों पर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप भी स्वाभाविक था.
सरकार पर भी न्यायपालिका में हस्तक्षेप और नियुक्ति के लिए कॉलेजियम द्वारा दिये गये न्यायाधीशों के नामों पर टाल-मटोल करने के आरोप लगे, तो सरकार ने विपक्ष पर न्यायपालिका के नाम पर स्वार्थ की राजनीति करने का आरोप लगाया. कोई भी आरोप ऐसा नहीं है, जिसकी पड़ताल नहीं की जा सकती है या कोई ऐसा विवाद नहीं है, जिसे सुलझाया नहीं जा सकता है.
जब ऐसी स्थिति का संबंध सर्वोच्च न्यायालय जैसी शीर्ष संस्था से हो और न्यायपालिका की साख पर सवाल हो, तो सभी संबद्ध पक्षों को बहुत सचेत और सजग व्यवहार करना चाहिए. प्रधान न्यायाधीश ने सही ही कहा है कि वर्षों के परिश्रम से बनी संस्था की आलोचना करना, उस पर हमला करना और उसको तबाह करना आसान है और कुछ तत्व इसके लिए प्रयत्नशील हो सकते हैं, पर कठिन चुनौती उसे बेहतर बनाने की है.
हालांकि, न्यायपालिका के सुधार की प्राथमिक जिम्मेदारी न्यायाधीशों और जजों की है, लेकिन सरकार को भी उसे समुचित संसाधन मुहैया करना चाहिए, जिसकी मांग समय-समय पर होती रहती है. सरकार को उन हालातों से भी परहेज करना चाहिए, जिनसे यह इंगित हो कि उसका इरादा अदालतों में दखल का है.
संविधान सभा में कही गयी महान स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद केएम मुंशी की इस बात को आज एक सूत्र के रूप में अंगीकार करने की दरकार है कि संविधान में न्यायपालिका को संरक्षित और सुरक्षित करने के उपाय मौजूद हैं, पर यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करेगा कि न्यायपालिका कैसे काम करती है, कार्यपालिका की मंशा क्या है और विधायिका की भावना कैसी है.