सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
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दोस्तों-रिश्तेदारों के यहां मिलने जाना हो और उनका छोटा बच्चा भी हो, तो आदमी को उससे ‘पोयम’ सुनने की तैयारी करके जाना पड़ता है. इसमें अपना कलेजा मजबूत करना और धीरज को झाड़-पोंछकर उस स्थिति से निपटने लायक बनाना शामिल है, जिसे तुलसी ने ‘आपतकाल’ की संज्ञा दी है और जिसमें धर्म, मित्र और नारी के साथ-साथ धीरज को भी परखने की सलाह दी है. ‘पोयम’ एक तरह की दोयम दर्जे की कविता को कहते हैं, जो छोटे बच्चों को रटाकर उन्हें और उनसे भी ज्यादा उनके माता-पिता को घर आनेवाले मेहमानों को सुनाकर उनसे कोई पुराना बदला चुकाने के लिए सिखायी जाती है.
जब तक मां-बाप अपने बच्चों से अंकल-आंटी को ‘पोयम’ नहीं सुनवा लेते, उन्हें उनके होनहार होने पर भरोसा नहीं होता. शहरों में पेड़-पौधे खत्म होते जाने से आजकल बच्चों को ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ की कसौटी पर तो कसा नहीं जा सकता, और ‘पूत के पांव पालने में’ पहचानने के लिए मां-बाप के पास समय नहीं होता.
इसमें मां-बाप को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है, क्योंकि बच्चे आसानी से उन्हें अनुगृहीत करने के लिए तैयार नहीं होते. वे भी बच्चन के नाम से मशहूर सोहनलाल द्विवेदी की कविता ‘कोशिश करनेवालों की हार नहीं होती’ से प्रेरित होकर लगातार कोशिश करते रहते हैं और तभी चैन की सांस लेते हैं और बच्चे तथा मेहमान को भी तभी लेने देते हैं, जब बच्चा ‘ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार’ के बारे में यह सुना देता है कि ‘हाउ आई वंडर व्हाॅट यू आर!’ इस क्रम में कोई बच्चा मछली के जल की रानी होने और जीवन उसका पानी होने की नायाब सूचना भी देता है, लेकिन कहलाती वह भी ‘पोयम’ ही है.
पोयम सुनाने के बदले में आगंतुक अंकल-आंटी को बच्चे से यह पूछने की रस्म निभानी पड़ती है कि बड़ा होकर वह क्या बनेगा? इसके जवाब में बच्चा प्रधानमंत्री से लेकर चाय बेचनेवाले तक कुछ भी बता सकता है. मेरा बेटा जब छोटा था, तो बड़ा होकर सब्जी बेचनेवाला बनना चाहता था, क्योंकि रोज सुबह ‘लौकी लो, तोरी लो’ की आवाज लगाने वाला सब्जी-विक्रेता उसे बहुत आकर्षित करता था.हालांकि, बड़ा होकर उसे इंजीनियर बनकर ही रह जाना पड़ा.
एक बच्चे के मुंह से यह सुनकर मैं हैरान रह गया कि बड़ा होकर वह कांवड़िया बनना चाहता है. बचपन से ही उसके धर्मोन्मुख होने पर मैं गर्व का अनुभव करना शुरू करता, इससे पहले ही उसने साफ कर दिया कि ऐसा वह लोगों, यहां तक कि पुलिस और सरकार तक को डराने-दबाने के लिए करना चाहता है.
बड़ों की चर्चा सुनकर वह इस नतीजे पर पहुंचा है कि जिन कामों के लिए गुंडे-मवालियों को ‘धरा’ जाता है, उन्हीं कामों के लिए कांवड़ियों को ‘पूजा’ जाता है. मैंने उसकी यह गलतफहमी दूर करनी चाही, पर तभी मुझे हाल ही में भयंकर ट्रैफिक-जाम में फंसकर एक किलोमीटर रास्ता भी साढ़े तीन घंटे में पार कर पाने और इस बीच एंबुलेंस में अस्पताल जा रहे मरीजों सहित कई बेबस लोगों को हैरान-परेशान होते देखना याद आ गया.