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हिमा दास को तो बख्श दीजिए
आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in हिमा दास आज देश में जाना-पहचाना नाम है. ग्रामीण और गरीब पृष्ठभूमि से आयी इस लड़की को अब से कुछ समय पहले तक कोई नहीं नहीं जानता था.भारत की 18 वर्षीया इस धाविका ने हाल में फिनलैंड में आयोजित विश्व जूनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 400 मीटर की […]
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
हिमा दास आज देश में जाना-पहचाना नाम है. ग्रामीण और गरीब पृष्ठभूमि से आयी इस लड़की को अब से कुछ समय पहले तक कोई नहीं नहीं जानता था.भारत की 18 वर्षीया इस धाविका ने हाल में फिनलैंड में आयोजित विश्व जूनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता है. उन्होंने 51.46 सेकेंड का शानदार समय निकालते हुए यह स्वर्णिम सफलता हासिल की. हिमा दास ट्रैक प्रतियोगिता में भारत के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाली पहली एथलीट बन गयी हैं. इसके पहले भी उनकी अनेक उपलब्धियां रही हैं.
कॉमनवेल्थ खेलों की 400 मीटर की स्पर्धा में हिमा दास छठे स्थान पर रही थीं. कॉमनवेल्थ खेलों की 4X400 मीटर स्पर्धा में भी उन्होंने 7वां स्थान हासिल किया था. गुवाहाटी में हुई अंतरराज्यीय चैंपियनशिप में भी हिमा ने स्वर्ण पदक जीता था, लेकिन उनकी यह उपलब्धि सबसे अहम है.
असम के ढींग जिले की रहने वाली हिमा के पिता एक गरीब किसान हैं. बचपन से आज तक उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा. सबसे महत्वपूर्ण बात कि हिमा ने बिना सुविधाओं के और विपरीत परिस्थितियों में यह मुकाम हासिल किया है.
उनकी उपलब्धियों पर पूरे देश को गर्व है. मैंने वह वीडियो देखा है और शायद आपने भी देखा हो, जिसमें वह जीतने के बाद कैसे तिरंगे को खोज रही हैं और पदक दिये जाने एवं राष्ट्रगान के वक्त किस तरह उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं. यह वीडियो देख कर कोई भी व्यक्ति भावुक हो सकता है.
लेकिन हिमा के जीतने के बाद गूगल से जो जानकारी आयी, वह विचलित करने वाली थी. गूगल में लोग उनके प्रोफाइल को खोजने के बजाय उनकी जाति को ढूंढने में लगे थे.
जीत के बाद हिमा दास की गूगल पर जो जानकारी सबसे ज्यादा खोजी जा रही थी, वह उनकी जाति थी. लोग यह नहीं जानना चाह रहे थे कि कैसे एक छोटे स्थान से निकली लड़की ने सभी बाधाओं को पार करते हुए बुलंदियों को छूआ. मुझे पता चला कि ऐसा 2016 ओलिंपिक के दौरान भी हुआ था, जब पीवी सिंधु बैडमिंटन कोर्ट पर कड़ी टक्कर दे रहीं थीं, तब लोग सिंधु की जाति जानना चाह रहे थे.
यह और कुछ नहीं, हमारे समाज की मानसिकता और उसमें घुले जाति के जहर को दर्शाता है. और तो और, पदक जीतने के बाद एथलेटिक्स फेडरेशन ऑफ इंडिया ने भी हिमा दास की अंग्रेजी को लेकर मजाक उड़ाया और उनकी टूटी-फूटी अंग्रेजी में दिये इंटरव्यू के वीडियो को पोस्ट कर दिया और बाद में जब इस पर लोगों की तीखी प्रतिक्रिया आयी, तब एएफआई को माफी मांंगनी पड़ी.
हाल में एक और खबर सामने आयी कि उत्तर प्रदेश में कासगंज जिले के निजामपुर गांव में पुलिस की सुरक्षा में एक दलित की शादी करायी गयी.
लगभग 350 पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में यह शादी संपन्न हुई. इस गांव में पहली बार किसी दलित शख्स को घोड़े की बग्गी पर बिठा कर बारात निकली. निजामपुर गांव के ऊंची जाति के लोगों ने धमकी दी थी कि अगर गांव में घोड़े पर बैठाकर दलित की बारात निकाली गयी, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं. इसलिए इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षा देनी पड़ी. इस शादी को लेकर पिछले छह महीने से विवाद चल रहा है.
संजय जाटव चाहते थे कि वह घोड़े पर बैठ कर अपनी बारात ले जाएं, लेकिन गांव के ऊंची जाति के लोग इस बात का विरोध कर रहे थे. छह पुलिस स्टेशनों से 350 से ज्यादा पुलिसकर्मी, पीएसी जवान, एक एएसपी और दो सर्किल ऑफिसर शादी के दौरान दलित परिवार की सुरक्षा में लगे हुए थे. जिस रास्ते से बारात गुजर रही थी, उस रास्ते में घरों की छतों पर पुलिसवाले हथियार के साथ मौजूद थे, ताकि कोई समस्या न खड़ी हो. पूरा निजामपुर गांव और आसपास का इलाका पुलिसवालों से भरा हुआ था.
संजय का संगीनों के साये में विवाह हो तो गया, लेकिन गंभीर प्रश्न छोड़ गया कि आजादी के 70 साल बाद भी अगर दलित समाज के दूल्हे को हम घोड़ी पर नहीं बैठने नहीं देंगे, तो कैसे समाज में समरसता पैदा होगी? इससे बड़ी दुर्भाग्य की बात कोई हो ही नहीं सकती है. अगर आपने गौर किया हो, तो आप पायेंगे कि बीच-बीच में मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और हरियाणा में दलितों की बारात रोकने की घटनाएं सामने आती रहती हैं.
आजादी के पहले और बाद में भी भारत में जाति आधारित विषमताओं को समाप्त करने के लिए कई आंदोलन चले. महात्मा गांधी ने दलितों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदलने के लिए कई पहल की. उन्होंने इनके लिए हरिजन शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया था. 19वीं सदी के मध्य में ज्योतिराव फुले ने दलितों के लिए आंदोलन शुरू किया. इस दिशा में बाबा साहब डॉ भीम राव आंबेडकर का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है.
उन्होंने भारत में दलितों की स्थिति सुधारने के लिए आरक्षण की एक व्यवस्था भी बनायी, लेकिन इतने प्रयासों के बावजूद आज भी समाज में जाति व्यवस्था मजबूत है. आज भी अगड़ी जातियों के लोग पिछड़ी और दलित जातियों के साथ रोटी-बेटी का संबंध नहीं रखना चाहते.
जाति व्यवस्था का विवाह और धार्मिक कर्मकांडों में आज भी बोलबाला है. मंदिरों में दलितों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार के अनेक मामले सामने आते रहते हैं. हाल में उत्तराखंड हाइकोर्ट कोर्ट में एक याचिका सुनवाई के लिए आयी कि हरिद्वार में ऊंची जाति के पुजारी निचली जाति वाले लोगों से भेदभाव करते हैं और उन्हें आरती और प्रसाद चढ़ाने से रोक दिया जाता है.
इस पर अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा और ऊंची जाति वाले पुजारियों से सभी मंदिरों में निचली जातियों के लोगों की तरफ से पूजा समारोह और धार्मिक कार्य कराने से इनकार न करने के निर्देश दिया. हाइकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि किसी भी जाति से संबंधित सभी व्यक्तियों को बिना किसी भेदभाव के मंदिर में जाने की अनुमति है और किसी भी जाति का प्रशिक्षित और योग्य व्यक्ति मंदिरों में पुजारी हो सकता है.
यह आदेश मंदिरों में भेदभाव को खत्म करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है, लेकिन ऐसी पहल अदालत के बजाय समाज की ओर से होनी चाहिए थी. और तो और, कुछ दिन पहले खबर आयी कि देश के प्रथम नागरिक महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ ओडिशा के जगन्नाथ मंदिर में वहां के पंडों ने अभद्रता की थी.
उन्हें और उनकी धर्मपत्नी को मंदिर के सेवादारों ने दलित होने की वजह से गर्भगृह तक जाने से रोक दिया था. ऐसी घटनाएं देश के माथे पर कलंक हैं. हालांकि समय के साथ समाज और परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है, लेकिन इस दिशा में आज भी बहुत कार्य करने की आवश्यकता है, ताकि जाति पर आधारित असमानता को समाज से उखाड़ फेंका जा सके.
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