भीड़ द्वारा खौफनाक हत्याओं का सिलसिला थमता नहीं दिखता. हालिया वारदात में महाराष्ट्र के धुले जिले में भीड़ ने ‘बच्चा-चोर’ समझकर पांच लोगों को जान से मार दिया. एक बार फिर सोशल मीडिया पर फैली अफवाह को इसकी वजह बताया जा रहा है. डेढ़-दो माह में देश के 14 राज्यों में हिंसक भीड़ के हाथों 27 लोगों ने जान गंवायी है.
यह बेहद चिंताजनक है कि लोगों का भीड़ में बदलकर मानवता और कानून की परवाह न करते हुए निर्दोष लोगों की जान लेना देश के इक्का-दुक्का इलाके तक सीमित नहीं है. ऐसी घटनाओं का सबसे स्याह पहलू यह है कि सरकार या नागरिक समाज की तरफ से सामाजिक अमन कायम रखने के लिए अगर कोई कोशिश की जा रही है, तो हिंसा पर उतारू भीड़ इसे भी शक की नजर से देख रही है. सोशल मीडिया के अफवाहों पर भरोसा नहीं करने का संदेश देनेवाले एक व्यक्ति को भीड़ ने त्रिपुरा में मार डाला है, जबकि लोगों को आगाह करने का जिम्मा उसे राज्य सरकार ने सौंपा था.
भीड़ के हिंसक होने के लिए सिर्फ सोशल मीडिया पर फैलती अफवाहों या फिर किसी इलाके में कानून-व्यवस्था की लचर होती स्थिति को दोष देकर संतोष नहीं किया जा सकता है. उस सामाजिक-राजनीतिक परिवेश की पड़ताल भी की जानी चाहिए, जिसमें लोगों का अफवाहों पर यकीन करना मुमकिन हो पा रहा है.
भाषा और भूगोल के लिहाज से एक-दूसरे से बहुत दूर पड़ते इलाकों में लोगों का हिंसक और हत्यारा हो जाना बगैर एक खास माहौल के संभव नहीं हो सकता है. हमें खोजना होगा कि क्या यह मौजूदा माहौल लोगों में बढ़ती असुरक्षा के बोध का परिणाम है, क्योंकि असुरक्षा की भावना अक्सर हिंसा का रूप लेती है.
असुरक्षा की भावना आपसी अविश्वास और संदेह से पैदा होती है और ऐसा तभी होता है, जब एक समूह या समुदाय दूसरों को अपने से अलग और दुश्मनी की नजर से देखने लगता है. भारत सरीखे समुदाय-बहुल राष्ट्र में जाति, वर्ग, धर्म, भाषा, प्रांत, लिंग आदि के भेद को बढ़ावा देकर लोगों के एक समूह को दूसरे समूह से अलग करना बहुत आसान है.
भीड़ के हाथों हिंसा का शिकार हुआ हर व्यक्ति ऐसे ही अलगाव का शिकार है. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि इस तरह की हिंसा को जायज ठहराने के लिए कुतर्क भी गढ़े जा रहे हैं. ऐसे में उन व्यक्तियों, संस्थाओं या सत्ता प्रतिष्ठानों को चिह्नित करना भी जरूरी है, जो सामाजिक माहौल में जहर घोलने पर आमादा हैं.
यह भी जरूरी है कि हिंसक भीड़ की हरकतों पर कानूनी और प्रशासनिक अंकुश कठोर किया जाये और दोषियों को सजा देने के पुख्ता इंतजाम किये जाएं. हत्यारों का हर स्तर पर विरोध करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
यदि सरकारों और समाज ने चुप्पी साध ली या फिर इन वारदातों की गंभीरता को नजरअंदाज किया, तो इससे सिलसिलेवार घटित हो रहे रहे भयानक अन्याय को बढ़ावा ही मिलेगा. एक सभ्य और लोकतांत्रिक देश में हत्यारी मानसिकता और उसे पोषण देनेवाले तत्वों की कोई जगह नहीं होनी चाहिए.